फिल्म और साहित्य |
हमने गत मास के 'लेखक' मे 'सिनेमा और साहित्य' शीर्षक से एक
छोटा सा लेख लिखा था, जिसे पढ़कर हमारे मित्र श्री नरोत्तम प्रसाद
जी नागर, सपादक 'रंगभूमि' ने एक प्रतिवाद लिख भेजने की कृपा की है।
हम अपने लेखको 'लेखक' से यहाँ नकल कर रहे हैं, ताकि पाठकों को
मालूमहो जाय कि हमारे और नरोत्तमप्रसाद जी के विचारो मे क्या अंतर
पाठक स्वय अपना निर्णय कर लेंगे । नागर जो का मै कृतज्ञ हूँ, कि
है । उन्होंने उस लेखको पढ़ा और उसपर कुछ लिखनेकी जरूरत समझी।
वह खुद सिनेमा मे सुधार के समर्थक है और बरसों से यह अान्दोलन
कर रहे हैं, इसलिए इस विषय पर। उन्हें सम्मति देने का पूरा अधिकार
है । हम उनके प्रतिवाद को भी ज्यों का त्यो छापते हैं।
'लेखक' में प्रकाशित हमारा लेख
अकसर लोगों का खयाल है कि जब से सिनेमा 'सवाक्' हो गया
है, वह साहित्य का अंग हो गया, और साहित्य सेवियों के लिए कार्य
का एक नया क्षेत्र खुल गया है । साहित्य भावो को जगाता है, सिनेमा
भी भावो को जगाता है, इसलिए वह भी साहित्य है । लेकिन प्रश्न
यह होता है-कैसे भावो को १ साहित्य वह है जो ऊँचे और पवित्र
भावो को जगाये, जो सुन्दरम् को हमारे सामने लाये । अगर कोई
पुस्तक हमारी पशु भावनाओं को प्रबल करती है, तो हम उसे साहित्य
में स्थान न देगे । पारसी स्टेज के ड्रामो को हमने साहित्य का गौरव
नहीं दिया । इसीलिए कि सुन्दरम् का जो साहित्यिक आदर्श अव्यक्त