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साहित्य का उद्देश्य


गोर्की साहब की राय मे इसकी उत्पत्ति सामाजिक व्यवस्था से हुई । समाज मे जो विशिष्ट लोग थे, वही देवताओ के नमूने बन गये। आदिम मनुष्यो की कल्पना मे देवता काई निराकार वस्तु या कोई अजूबा चीज न था, बल्कि वह मजदूर था, जिसके अस्त्रो मे हसिया या बसूला या कोई दूसरा औजार होता था । वह किसी न किसी उद्योग का जान कार होता था और मजदूरो की ही भांति मेहनत करता था । आप आगे कहते है :

'ईश्वर केवल उनकी कलात्मक रचना था, जिसके द्वारा उन्होने अपने उद्योग की सफलताओ और विजयो का प्रदर्शन किया। दन्त- कथाओ मे मानव शक्तियो और उसके भावी विकास को देवत्व तक पहुँचा दिया गया है, पर असल मे वास्तविक जीवन ही उनका स्रोत है और उनकी उक्तियो से यह पता लगाना कठिन नहीं है कि उनकी प्रेरणा परिश्रम की व्यथा को कम करने के लिए हुई है।

तो मैक्सिम गोर्की के कथनानुसार मजदूरो ने ईश्वर को एक साधारण, सहृदय मजदूर के रूप मे देखा, लेकिन धीरे धीरे जब शक्तिवान् व्यक्तियो ने खुद ही मजदूरी छोड़कर मजदूरो से मालिक का दर्जा पा लिया तो यही ईश्वर मजदूरो स कठिन से कठिन काम लेने के लिए उपयुक्त होने लगा।

इसके बाद जब ईश्वर और देवताओ की सृष्टि का गौरव मज- दूर सेवको के हाथ से निकलकर धनी स्वामियो के हाथ मे आ गया, तो ईश्वर और देवता भी मजदूरो की श्रेणी से निकलकर महाजनो और राजाओ की श्रेणी मे जा पहुँचे, जिनका काम अासराओ के साथ विहार करना, स्वर्ग के सुख लूटना, और दुखियो पर दया करना था। भारत मे तो मजदूर देवताओ का कही पता नही है। यहाँ के देवता तो शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण करते है । कोई फरसा लिये पापियो का कल्ल आम करता फिरता है, कोई बैल पर चढा भग चढ़ाये, भभूत रमाये, ऊल जलूल बकता नजर आता है। जाहिर है कि ऐसे ऐशपसन्द