पृष्ठ:साहित्य का उद्देश्य.djvu/१३७

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ग्राम्य गीतों में समाज का चित्र

 

प्रत्येक समाज में धर्म और आचरण की रक्षा जितनी ग्राम्य-साहित्य और ग्राम्य गीतों द्वारा होती है, उतनी कदाचित् और किसी साधन से नहीं होती। हमारी पुरानी कहावतें और लोकोक्तियाँ आज भी हममें से ६६ फीसदी मनुष्यों के लिए जीवन-मार्ग के दीपक के समान हैं। अपने व्यवहारों में हम उन्हीं आदर्शों से प्रकाश लेते हैं। अगर हमारे ग्राम्य-गीत, ग्राम्य-कथाएँ और लोकोक्तियाँ हमें स्वार्थ, अनुदारता और निर्ममता का उपदेश देती हैं तो उनका हमारे जीवन-व्यवहारों पर वैसा ही असर पड़ना स्वाभाविक है। इस दृष्टि से जब हम अपने ग्राम्य-गीतों की परीक्षा करते हैं, तो हमें यह देखकर खेद होता है कि उनमें प्रायः वैमनस्य, ईर्ष्या, द्वेष और प्रपंच ही की शिक्षा दी गई है। सास जहाँ आती है, वहाँ उसे पिशाचिनी के रूप में ही देखते हैं, जो बातचीत में बहू को ताने देती है, गालियाँ सुनाती है, यहाँ तक कि बहू को निस्संतानरह ने पर उसे बाझिन कहकर उसका तिरस्कार करती है। ननद का रूप तो ओर भी कठोर है। शायद ही कोई ऐसा ग्राम्य-गीत हो, जिससे ननद और भावज में प्रेम और सौहार्द का पता चलता हो। ननद को भावज से न जाने क्यों जानी दुश्मनी रहती है। वह भावज का खाना-पहनना, हँसना-बोलना कुछ नहीं देख सकती और हमेशा ओठडे खोज-खोजकर उसे जलाती रहती है। देवरानियों, जेठानियों और गोतिनो ने तो मानो उसका अनिष्ट करने के लिए कसम खा रखी है। वे उसके पुत्रवती होने पर जलती हैं, और उसे भी पुत्र जन्म का या अपनी सुदशा का

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