इगलिश बोलते है, फ्रासवाले फ्रेंच, जर्मनीवाले जर्मन, फारसवाले
फारसी, तुर्कीवाले तुर्की, अरबवाले अरबी, फिर हिन्दवाले क्यों न हिन्दी
बोले ? उर्दू तो न काफिये मे आती है न रदीफ मे,न बहर मे न वजन मे।
हाँ, हिन्दुस्तान का नाम उर्दूस्तान रखा जाय, तो बेशक यहाँ की कौमी
भाषा उर्दू होगी। कौमी भाषा के उपासक नामो से बहस नहीं करते,
वह तो असलियत से बहस करते है । क्यों दोनों भाषाओं का कोष एक
नहीं हो जाता ? हमे दोनों ही भाषाओ मे एक आम लुगत (कोष ) की
जरूरत है, जिसमे श्रामफहम शब्द जमा कर दिये जायें । हिन्दी मे तो
मेरे मित्र पण्डित रामनरेश त्रिपाठी ने किसी हद तक यह जरूरत पूरी कर
दी है । इस तरह का एक लुगत उर्दू मे भी होना चाहिए । शायद वह
काम कौमी-भाषा-सघ बनने तक मुल्तवी रहेगा । मुझे अपने मुसलिम
दोस्तों से यह शिकायत है कि वह हिन्दी के प्रामफहम शब्दो से भी
परहेज करते है, हालॉ कि हिन्दी मे अामफहम फारसी के शब्द आजादी
मे व्यवहार किये जाते हैं।
लेकिन प्रश्न उठता है कि राष्ट्र-भाषा कहाँ तक हमारी जरूरते पूरी
कर सकती है ? उपन्यास, कहानियों, यात्रा-वृत्तान्त, समाचार-पत्रों के
लेख, आलोचना अगर बहुत गूढ न हो, यह सब तो राष्ट्र-भाषा मे अभ्यास
कर लेने से लिखे जा सकते है। लेकिन साहित्य में केवल इतने ही विषय
तो नहीं है । दर्शन और विज्ञान की अनन्त शाखाएँ भी तो हैं जिनको
आप राष्ट्र-भाषा मे नहीं ला सकते । साधारण बाते तो साधारण और
सरल शब्दों मे लिखी जा सकती है । विवेचनात्मक विषयो मे यहाँ तक
कि उपन्यास मे भी जब वह मनोवैज्ञानिक हो जाता है, आपको मजबूर
होकर संस्कृत या अरबो-फारसी शब्दों की शरण लेनी पडती है । अगर
हमारी राष्ट्र-भाषा सर्वाङ्गपूर्ण नहीं है, और उसमे श्राप हर एक विषय, हर
एक भाव नहीं प्रकट कर सकते, तो उसमे यह बडा भारी दोष है, और यह
हम सभी का कर्तव्य है कि हम राष्ट्र-भाषा को उसी तरह सर्वाङ्गपूर्ण बनावें,
जैसी अन्य राष्ट्रो की सम्पन्न भाषाएँ है। यों तो अभी हिन्दी और उर्दू