बोल-चाल की हिन्दी समझने मे न ता साधारण मुसलमानो को ही कोई
कठिनता होती है और न बोल चाल की उर्दू समझने मे माधारण
हिन्दुओ को ही । बोल-चाल की हिन्दी और उर्दू प्राय, एक-सी ह' हैं।
हिन्दी के जो शब्द साधारण पुस्तको और समाचार पत्रों मे व्यवहृत होते
है और कभी-कभी पण्डितो के भाषणो मे भी आ जाते है, उनकी संख्या
दो हजार से अधिक न हागी । इसी प्रकार फारसी के साधारण शब्द भी
इससे अधिक न होगे । क्या उर्दू के वर्तमान कोषो मे दा हजार हिन्दी
शब्द और हिन्दी के कोषो मे दो हजार उर्दू शब्द नहीं बढाये जा
सकते और इस प्रकार हम एक मिश्रित कोष की सृष्टि नहीं कर
सकते क्या हमारी स्मरण-शक्ति पर यह भार असह्य होगा ? हम अंग्रेजी
के असंख्य शब्द याद कर सकते है भार वह भी केवल एक अस्थायी
आवश्यकता की पूर्ति करने के लिए। तो फिर क्या हम एक स्थायी
उद्देश्य की सिद्धि के लिए थोड़े से शब्द भो याद नहीं कर सकते ? उद
और हिन्दी भाषामो मे न तो अभी विस्तार ही है और न दृढ़ता। उनके
शब्दो की संख्या परिमित है । प्रायः साधारण अभिप्राय प्रकट करने के
लिए भी उपयुक्त शब्द नहीं मिलते । शब्दा की इस वृद्धि से यह शिका-
यत दूर हो सकतो है।
भारतवर्ष की सभी भाषाएँ या तो प्रत्यक्ष रूप से या अप्रत्यक्ष
रूप से सस्कृत से निकली हैं। गुजराती, मराठो भार बॅगला की तो
लिपियाँ भी देवनागरी से मिलती-जुलती है। यद्यपि दक्षिणी भारत की
भाषाओ की लिपियों बिलकुल भिन्न है; परन्तु फिर भी उनमे सस्कृत
शब्दों की बहुत अधिकता है । अरबी और फारसी के शब्द भी सभी
प्रान्तीय भाषाओ मे कुछ न-कुछ मिलते है । परन्तु उनमे संस्कृत शब्दो की
उतनी अधिकता नही होतो, जितनी हिन्दी मे होती है। इसलिए यह बात
बिलकुल ठीक है कि भारतवर्ष मे ऐसी हिन्दी बहुत सहज में स्वीकृत
और प्रचलित हो सकती है जिसमे संस्कृत के शब्द अधिक हो। दूसरे
प्रान्तो के मुसलमान भी ऐसी हिन्दी सहज मे समझ सकते हैं परन्तु