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उर्दू हिन्दी और हिन्दुस्तानी

पारिभाषिक शब्द बनाये गये है और अभी यह क्रम चल रहा है। क्या यह गत कहीं अधिक उत्तम न होगी कि भिन्न भिन्न प्रान्तीय सभाएँ और सस्थाएँ आपस मे मिलकर परामर्श करें और एक दूसरी की सहायता से यह कठिन कार्य पूरा करे ? इस समय सभी लोगो को अलग अलग बहुत कुछ परिश्रम, माथापच्ची और व्यय करना पड़ रहा है और उसमे बहुत कुछ बचत हो सकती है । हमारी समझ मे तो यह आता है कि नये सिरे से पारिभाषिक शब्द बनाने की जगह कहीं अच्छा यह होगा कि अंग्रेजी के प्रचलित पारिभाषिक शब्दो मे कुछ आवश्यक परिवर्तन करके उन्हीं को ग्रहण कर लिया जाय । ये पारिभाषिक शब्द केवल अंग्रेजी मे ही प्रचलित नही है बल्कि प्रायः सभी उन्नत भाषात्रो में उनसे मिलते जुलते पारिभाषिक शब्द पाये जाते हैं। कहते हैं कि जापानियों ने भी इसी मार्ग का अवलम्बन किया है और मिस्र मे भी थोडे बहुत सुधार और परिवर्तन के साथ उन्ही को ग्रहण किया गया है । यदि हमारी भाषा में बटन, लालटेन और बाइसिकिल सरीखे सैकडो विदेशी शब्द खप सकते है तो फिर पारिभाषिक शब्दो को लेने में कौन-सी बात बाधक हो सकती है ? यदि प्रत्येक प्रान्त ने अपने अलग-अलग पारिभाषिक शब्द बना लिये तो फिर भारतवर्ष की कोई राष्ट्रीय विद्या और विज्ञान-सम्बन्धी भाषा न बन सकेगी। बॅगला, मराठी, गुजराती और कन्नडी आदि भाषाएँ सस्कृत की सहायता से यह कठिनता दूर कर सकती है । उर्दू भी अरबी और फारसी की सहायता से अपनी पारिभाषिक आवश्यकताएँ पूरी कर सकती है। परन्तु हमारे लिए ऐसे शब्द प्रचलित अँग्रेजी पारिभाषिक शब्दों से भी कही अधिक अपरिचित होगे । 'आईन अकबरी' ने हिन्दू दर्शन, सगीत और गणित के लिए सस्कृत के प्रचलित पारिभाषिक शब्द ग्रहण करके एक अच्छा उदाहरण उपस्थित कर दिया है । इस्लामी दर्शन, धर्म-शास्त्र आदि में से हम प्रचलित अरबी पारिभाषिक शब्द ग्रहण कर सकते है । जो विद्याएँ पाश्चात्य देशो से अपने-अपने पारि- भाषिक शब्द लेकर आयी हैं, यदि उन्हें भी हम उन शब्दों के सहित ग्रहण कर लें तो यह बात हमारी ऐतिहासिक परम्परा से भिन्न न होगी।