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अन्तप्रान्तीय साहित्यिक आदान-प्रदान के लिये


ने अपने रेजोल्यूशनो की भाषा में तरमीम स्वीकार की। अभी से निराश होकर वह परिषद् का जीवन खतरे मे न डाले ।

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४:प्रान्तीय साहित्य की एकता

अाज 'हंस' भारत के समस्त साहित्यों का मुखपत्र बनने की इच्छा से एक नई विशाल भावना को लेकर अवतार्ण हो रहा है। इसका मुख्य उद्देश्य है भारत के भिन्न भिन्न प्रान्तो की साहित्य समृद्धि को राष्ट्रवाणी हिन्दी के द्वारा सारे भारत के आगे उपस्थित करना।

राष्ट्र, वस्तु नहीं...वह एक भावना है । करोड़ों स्त्री पुरुषो की संकल्पयुक्त इच्छा पर इस भावना को रचना हुई है। आज अगणित भारतवासी अपने आचार और विचार मे इसी भावना को व्यक्त कर रहे हैं। सारा हिन्द एक और अविभाज्य है।

यह भावना, कई तरह से, कई रूपा मे प्रकट है । अग्रेजी पढ़े लिखे लोग अग्रेजी भाषा के द्वारा इस भावना को जाहिर करते है; दूसरे अनेक अपनी अपनी मातृभाषा मे । प्रयत्न एक ही दिशा मे अनेकों हो रहे हैं। वे राष्ट्रभाषा और साहित्य के बिना एकरूप नहीं हो सकते।

अब हिन्दी, राष्ट्रभाषा के रूप मे सर्वजनमान्य हो चुकी है। महात्मा गान्धी जैसे राष्ट्र विधाता इसे जीवित राष्ट्रभाषा बनाने का व्रत ले चुके हैं । परन्तु यह भाषा सिर्फ व्यवहार की, आपस के बोलचाल की ही नहीं, साहित्य की भी होनी चाहिए । सास्कारिक विनिमय तथा सौन्दर्य दर्शन में भी उसका उपयोग होना चाहिए । यदि भारत एक और अवि. भाज्य हो, तो इसका संस्कार-विनिमय और सौन्दर्य-दर्शन एक ही भाषा मे और परस्परावलम्बी साहित्य-प्रवाह द्वारा करना चाहिए।

भारतीय राष्ट्रभाषा कोई भी हो, उसमे हमें प्रत्येक देश भाषा के