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साहित्य का उद्देश्य


राजनीति और रिशवत

वर्तमान राजनीति मे रिशवत भी एक जरूरी मद है । क्या इंग्लैण्ड, क्या फ्रांस, क्या जापान, सभी सभ्य और उन्नत देशों में यह मरज दिन- दिन बढता जा रहा है। चुनाव लड़ने के लिए बड़े-बड़े लोग जमा किये जाते है और वोटरो से वोट लेने के लिए सभी तरह के प्रलोभनों से काम लिया जाता है। जब देश के शासक खुद ऐसे काम करते है, तो उसे रोके कौन ? शैतान ही जानता है चुनाव के लिए कैसी-कैसी चाले चली जाती है, कैसे-कैसे दॉव खेले जाते है । अपने प्रतिद्वन्द्वी को नीचा दिखाने के लिए बुरे से बुरे साधन काम में लाये जाते हैं। जिस दल के पास धन ज्यादा हो, और कार्यकर्ता-कनवैसर-अच्छे हो, उसकी जीत होती है । यह वर्तमान शासन-पद्धति का कलंक है । इसका फल यह होता है कि सबसे योग्य व्यक्ति नहीं, सबसे चालबाज़ लोग ही चुनाव के संग्राम में विजयी होते है । ऐसे ही स्वार्थी, आदर्थ-हीन, विवेकहीन मनुष्यों के हाथ में संसार का शासन है। फिर अगर संसार में स्वार्थ का राज्य है, तो क्या आश्चर्य !

पहले हिन्दुस्तानी, फिर और कुछ

हिन्दू तो हमेशा से यही रट लगाते चले आ रहे हैं लेकिन मुसल- मान इस आवाज़ में शरीक न थे । बीच मे एक बार मौ० मुहम्मदअली या शायद उनके बड़े भाई साहब ने यह आवाज मुंँह से निकालने का साहस किया था; मगर थोडे दिनो के बाद उन्होंने फिर पहलू बदला और 'पहले मुसलमान फिर और कुछ' का नारा बुलन्द किया। फिर क्या था, मुसलिम दल मे उनका जितना सम्मान कम हो गया था, उससे कई गुना ज्यादा मिल गया । आज अगर कोई मुसलमान 'पहले हिन्दुस्तानी' होने का दावा करे, तो उस पर चारो तरफ से बौछारे होने लगेगी। 'पहले मुसलमान' बनकर धर्मान्ध जनता की निगाह मे गौरव प्राप्त कर लेना तो आसान है; पर उसका मुसलमानों की मनोवृत्ति पर जो बुरा