कर लेता हूँ। दूसरे, किसी नाटकीय घटना-द्वारा।जब कोई रोधक और
विचित्र घटना हो जाती है, ता उसमे कुछ उलझाव और नवीनता लाकर
एक प्लाट बना लेता हूँ । तीमरे, किसी समस्या या सामाजिक प्रश्न
द्वारा । समाचार-पत्रो मे तरह-तरह के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक
प्रश्नो पर आलोचनाएँ होती रहती है। उनमे से कोई प्रश्न लेकर,
जैसे बालको क परिश्रम और मजूरी का प्रश्न, उन, पर कहानी का
डॉत्रा खडा कर लेता हूँ।
प्रश्न-जब आप किसी चरित्र का चित्रण करने लगते है, तो क्या उसमे वास्तविक जीवन की बाते लिखते है ?
उत्तर-कभी नही । वास्तविक जीवन की बातो और कृत्यों से कहानी नही बनती । वह तो केवल कहानी के लिये ईट-मसाले का काम दे सकते है । वास्तविक जीवन की नीरसताआ और बाधाआ से कुछ देर तक मुक्ति पाने के लिये ता लाग कहानियाँ पढते है। जब तक कहानी मे मनोरजकता न रहेगी, तो उससे पाठको का क्या यानन्द मिलेगा? जीवन मे बहुत-सी बाते इतनी मनारजक और विस्मयकारी होती है, जिनकी कोई बडे से बड़ा कलाकार भी कल्पना नही कर सकता । पुरानी कहावत है -सत्य कथा से कही विचित्र होता है। कलाकार जो कुछ करता है, वह यही है कि उन अनुभूतियो पर अपने मनोभावो का, अपने दृष्टिकोण का रंग चढा दे।
प्रश्न-क्या एक कल्पित चरित्र की सृष्टि करने की अपेक्षा ऐसे चरित्र का निर्माण करना ज्यादा महत्वपूर्ण नही है, जो सजीव प्राणी की भॉति हॅसता-बोलता, जीता-जागता दिखाई दे?
उत्तर-हॉ, यह बिलकुल ठीक है । इसलिए जब तक मै चरित्र-
नायक को अच्छी तरह जान नहीं लेता, उसके विषय मे एक शब्द भी
नहीं लिखता । इससे मुझे बड़ी मदद मिलती है। मै हीरो के विषय मे
पहले यह जानना चाहता हूँ कि उसके मॉ-बाप कौन है ? वह कहाँ पैदा
हुआ था ? उसकी बाल्यावस्था किन लोगो की सगत मे गुजरी ? उसने