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जीवन में सहित्य का स्थान


सीमा से बाहर न जा सके । हम उन पर जितना कठोर सयम रख सकते हैं, उतना ही मगलमय हमारा जीवन हो जाता है ।

किन्तु नटखट लड़को से डॉटकर कहना-तुम बडे बदमाश हो, हम तुम्हारे कान पकड़कर उखाड लेगे-अक्सर व्यर्थ ही होता है, बल्कि उस प्रवृत्ति को और हठ की ओर ले जाकर पुष्ट कर देता है। जरूरत यह होती है, कि बालक मे जो सवृत्तियाँ है उन्हे ऐसा उत्तेजित किया जाय, कि दूषित वृत्तियों स्वाभाविक रूप से शान्त हो जायें। इसी प्रकार मनुष्य को भी आत्मविकास के लिए सयम की आवश्यकता होती है। साहित्य ही मनोविकारो के रहस्य खोलकर सदवृत्तियो को जगाता है । सत्य को रसो-द्वारा हम जितनी आसानी से प्राप्त कर सकते है, ज्ञान और विवेक द्वारा नही कर सकते, उसी भाँति जैसे दुलार-चुमकारकर बच्चो को जितनी सफलता से वश मे किया जा सकता है, डॉट-फटकार से सम्भव नहीं। कौन नहीं जानता कि प्रेम से कठोर-से-कठोर प्रकृति को नरम किया जा सकता है । साहित्य मस्तिष्क की वस्तु नहीं, हृदय की वस्तु है । जहाँ ज्ञान और उपदेश असफल होता है, वहाँ साहित्य बाजी ले जाता है । यही कारण है, कि हम उपनिपदो और अन्य धर्म-ग्रथो को साहित्य की सहायता लेते देखते है। हमारे धर्माचार्यों ने देखा कि मनुष्य पर सबसे अधिक प्रभाव मानव-जीवन के दुःख-सुख के वर्णन से ही हो सकता है और उन्होने मानव-जीवन की वे कथाएँ रची,जो आज भी हमारे आनंद की वस्तु है । बौद्धो की जातक-कथाएँ, तौरेह, कुरान, इखील ये सभी मानवी कथात्रो के सग्रहमात्र है। उन्हीं कथानो पर हमारे बडे-बडे धर्म स्थिर है । वही कथाएँ धर्मों की आत्मा है । उन कथाओ को निकाल दीजिए, तो उस धर्म का अस्तित्व मिट जायगा । क्या उन धर्म-प्रवर्तकों ने अकारण ही मानवी जीवन की कथाओ का आश्रय लिया १ नहीं, उन्होंने देखा कि हृदय द्वारा ही जनता की आत्मा तक अपना सन्देशा पहुँचाया जा सकता है। वे स्वय विशाल हृदय के मनुष्य थे। उन्होने मानव जीवन