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सहित्य का उदेश्य


से अपनी आत्मा का मेल कर लिया था। समस्त मानवजाति से उनके जीवन का सामञ्जस्य था, फिर वे मानव-चरित्र की उपेक्षा कैसे करते ?

अादि काल से मनुष्य के लिए सबसे समीप मनुष्य है । हम जिसके सुख दुःख, हंसने-रोने का मर्म समझ सकते है, उसी से हमारी आत्मा का अधिक मेल होता है । विद्यार्थी को विद्यार्थी-जीवन से,कृषक को कृषक- जीवन से जितनी रुचि है, उतनी अन्य जातियों से नहीं, लेकिन साहित्य- जगत् मे प्रवेश पाते ही यह भेद, यह पार्थक्य मिट जाता है। हमारी मानवता जैसे विशाल और विराट् होकर समस्त मानव-जाति पर अधि- कार पा जानी है। मानव-जाति ही नही, चर और अचर, जड़ और चेतन सभी उसके अधिकार में आ जाते हैं । उसे मानो विश्व की आत्मा पर साम्राज्य प्राप्त हो जाता है। श्री रामचन्द्र राजा थे; पर आज रंक भी उनके दुःख से उतना ही प्रभावित होता है, जितना कोई राजा हो सकता है । साहित्य वह जादू की लकड़ी है, जो पशुश्रो मे, ईट-पत्थरों मे, पेड-पौधों मे विश्व की आत्मा का दर्शन करा देती है । मानव हृदय का जगत् , इस प्रत्यक्ष जगत् जैसा नही है । हम मनुष्य होने के कारण मानव-जगत् के प्राणियो मे अपने को अधिक पाते है, उनके सुख-दु:ख, हर्ष और विषाद से ज्यादा विचलित होते है । हम अपने निकटतम बन्धु- बाधवों से अपने को इतना निकट नहीं पाते, इसलिए कि हम उनके एक एक विचार, एक-एक उद्गार को जानते हैं, उनका मन हमारी नजरो के सामने आईने की तरह खुला हुआ है । जीवन मे ऐसे प्राणी हमे कहाँ मिलते हैं, जिनके अन्तःकरण मे हम इतनी स्वाधीनता से विचर सकें। सच्चे साहित्यकार का यही लक्षण है कि उसके भावो मे व्यापकता हो, उसने विश्व की आत्मा से ऐसी Harmony प्राप्त कर ली हो कि. उसके भाव प्रत्येक प्राणी को अपने ही भाव मालूम हो ।

साहित्यकार बहुधा अपने देश काल से प्रभावित होता है । जब कोई लहर देश मे उठती है, तो साहित्यकार के लिए उससे अविचलित रहना असंभव हो जाता है और उसकी विशाल आत्मा अपने देश-बन्धुओं के