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सहित्य का उदेश्य


स्पष्ट न करता हो । इसके सिवा,कहानी की भाषा बहुत ही सरल और सुबोध होनी चाहिए । उपन्यास वे लोग पढ़ते हैं, जिनके पास रुपया है; और समय भी उन्हों के पास रहता है, जिनके पास धन होता है। आख्यायिका साधारण जनता के लिए लिखी जाती है, जिनके पास न धन है, न समय । यहाँ तो सरलता पैदा कीजिए, यही कमाल है । कहानी वह ध्रुपद की तान है जिसमे गायक महफिल शुरू होते ही अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा दिखा देता है, एक क्षण में चित्त को इतने माधुर्य से परिपूरित कर देता है, जितना रात भर गाना सुनने से भी नहीं हो सकता।

हम जब किसी अपरिचित प्राणी से मिलते है, तो स्वभावतः यह जानना चाहते है कि यह कौन है । पहले उससे परिचय करना आवश्यक समझते हैं। पर अाजकल कथा भिन्न-भिन्न रूप से प्रारम्भ को जाती है। कहीं दो मित्रो की बातचीत से कथा प्रारम्भ हो जाती है, कहीं पुलिस- कोर्ट के एक दृश्य से। परिचय पीछे आता है। यह अँग्रेजी श्राख्यायिकानो की नकल है । इनसे कहानी अनायास ही जटिल और दुर्बोध हो जाती है। योरपवालों की देखा-देखी यन्त्रो-द्वारा, डायरी या टिप्पणियों द्वारा भी कहानियाँ लिखी जाती हैं। मैने स्वयं इन सभी प्रथाओं पर रचना की है; पर वास्तव मे इससे कहानी की सरलता मे बाधा पड़ती है । योरप के विज्ञ समालोचक कहानियो के लिए किसी अन्त की भी जरूरत नहीं समझते । इसका कारण यही है कि वे लोग कहानियाँ केवल मनोरंजन के लिए पढते है। आपको एक लेडी लन्दन के किसी होटल मे मिल जाती है। उसके साथ उसकी वृद्धा माता भी है। माता कन्या से किसी विशेष पुरुष से विवाह करने के लिए आग्रह करती है। लडकी ने अपना दूसरा वर ठीक कर रखा है। माँ बिगड़कर कहती है, मै तुझे अपना धन न दूंगी। कन्या कहती है, मुझे इसकी परवा नहीं। अन्त मे माता अपनी लड़की से रूठकर चली जाती है। लड़की निराशा की दशा मे बैठी है कि उसका अपना पसन्द किया युवक आता है। दोनों में बातचीत होती है। युवक का प्रेम सच्चा है। वह बिना धन के ही