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कहानी-कला

है, उतनी आसानी से नवीन उपन्यासो का आनन्द नहीं उठा सकती। और अगर काउट टॉल्सटॉय के कथनानुसार जनप्रियता ही कला का आदर्श मान लिया जाय, तो अलिफ-लैला के सामने स्वय टॉल्सटॉय के 'वार ऐड पोस' ओर ह्य गो के 'ले मिजरेबुल' की कोई गिनती नही । इस सिद्धान्त के अनुपार हमारी राग-रागिनियों, हमारी सुन्दर चित्रकारियाँ और कला के अनेक रूप, जिन पर मानव-जाति को गर्व है, कला के क्षेत्र से बाहर हो जायेंगे । जन-रुचि परज और बिहाग की अपेक्षा बिरहे और दादरे को ज्यादा पसन्द करती है । बिरहो और ग्रामगीतो मे बहुधा बडे ऊँचे दरजे की कविता होती है, फिर भी यह कहना असत्य नहीं है कि विद्वानों और प्राचार्यों ने कला के विकास के लिए जो मर्यादाएँ बना दी है, उनसे कला का रूप अधिक सुन्दर और अधिक संयत हो गया है । प्रकृति मे जो कला है, वह प्रकृति की है, मनुष्य की नहीं । मनुष्य को तो वही कला मोहित करती है, जिस पर मनुष्य की आत्मा की छाप हो, जो गीली मिट्टी की भॉति मानव-हृदय के साँचे मे पड़कर संस्कृत हो गयी हो । प्रकृति का सौन्दर्य हमे अपने विस्तार और वैभव से पराभूत कर देता है । उससे हमे आध्यात्मिक उल्लास मिलता है, पर वही दृश्य जब मनुष्य की तूलिका एव रगो और मनोभावो से रजित होकर हमारे सामने आता है, तो वह जैसे हमारा अपना हो जाता है । उसमे हमे श्रात्मीयता का सन्देश मिलता है।

लेकिन भोजन जहाँ थोडे-से मसाले से अधिक रुचिकर हो जाता है, वहाँ यह भी आवश्यक है कि मसाले मात्रा से बढने न पाये । जिस तरह मसालो के बाहुल्य से भोजन का स्वाद और उपयोगिता कम हो जाती है,उसी भॉति साहित्य भी अलकारो के दुरुपयोग से विकृत हो जाता है । जो कुछ स्वाभाविक है, वही सत्य है और स्वाभाविक से दूर होकर कला अपना अानन्द खो देती है और उसे समझनेवाले थोडे-से कलाविद् ही रह जाते है, उसमे जनता के मर्म को स्पर्श करने की शक्ति नहीं रह जाती।

फा०४