भाव जितने व्यापक और गहरे तथा अनुभव-पूर्ण होते हैं, उतनी ही लेखक के प्रति हमारे मन मे श्रद्धा उत्पन्न होती है । यो कहना चाहिए कि वर्तमान आख्यायिका या उपन्यास का आधार ही मनोविज्ञान है । घटनाएं और पात्र तो उसी मनोवैज्ञानिक सत्य को स्थिर करने के निमित्त ही लाये जाते है । उनका स्थान बिलकुल गौण है। उदाहरणतः मेरी 'सुजान भगत,मुक्तिमार्ग','पञ्च-परमेश्वर', 'शतरज के खिलाड़ी' और 'महातीर्थ' नामक सभी कहानियो मे एक न एक मनोवैज्ञानिक रहस्य को खोलने की चेष्टा की गयी है।
"यह तो सभी मानते है कि आख्यायिका का प्रधान धर्म मनोरञ्जन है; पर साहित्यिक मनोरञ्जन वह है, जिससे हमारी कोमल और पवित्र भाव- नात्रों को प्रोत्साहन मिले-हममे सत्य, निःस्वार्थ सेवा, न्याय आदि देवत्व के जो अंश हैं, वे जागृत हो । वास्तव मे मानवीय आत्मा की यह वह चेष्टा है, जो उसके मन में अपने-आपको पूर्णरूप मे देखने की होती है । अभिव्यक्ति मानव-हृदय का स्वाभाविक गुण है । मनुष्य जिस समाज मे रहता है, उसमे मिलकर रहता है, जिन मनोभावों से वह अपने मेल के क्षेत्र का बढ़ा सकता है, अर्थात् जीवन के अनन्त प्रवाह मे सम्मिलित हो सकता है, वही सत्य है । जो वस्तुएँ भावनाप्रो के इस प्रवाह मे बाधक होती है, वे सर्वथा अस्वाभाविक है; परन्तु यदि स्वार्थ, अहङ्कार और ईर्षा की ये बाधाएँ न होती, तो हमारी आत्मा के विकास को शक्ति कहाँ से मिलती ? शक्ति तो संघर्ष मे है । हमारा मन इन बाधाओ का परास्त करके अपने स्वाभाविक कर्म का प्राप्त करने की सदैव चेष्टा करता रहता है। इसी सघर्ष से साहित्य की उत्पत्ति होती है। यही साहित्य की उपयागिता भी है । साहित्य मे कहानी का स्थान इसलिए ऊँचा है कि वह एक क्षण मे ही, बिना किसी घुमाव-फिराव के, श्रात्मा के किसी न किसी भाव को प्रकट कर देती है। और चाहे थोड़ी ही मात्रा मे क्यो न हो, वह हमारे परिचय का, दूसरो मे अपने को देखने का, दूसरो के हर्ष या शोक को अपना बना लेने का क्षेत्र बढ़ा देती है।