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उपन्यास


किस्से-कहानियो मे भी उन्ही लोगो से साबका है जिनके साथ आठों पहर व्यवहार करना पड़ता है, तो फिर ऐसी पुस्तक पढे ही क्यो ?

अँधेरी गर्म कोठरी मे काम करते-करते जब हम थक जाते है तब इच्छा होती है कि किसी बाग मे निकलकर निर्मल स्वच्छ वायु का अानद उठाये । इसी कमी को आदर्शवाद पूरा करता है। वह हमे ऐसे चरित्रो से परिचित कराता है, जिनके हृदय पवित्र होते है, जो स्वार्थ और वासना से रहित होते है, जो साधु प्रकृति के होते हैं । यद्यपि ऐसे चरित्र व्यवहार-कुशल नही होते, उनकी सरलता उन्हे सासारिक विषयो मे धोखा देती है, लेकिन कॉइएपन से ऊबे हुए प्राणियो को ऐसे सरल, ऐसे व्यावहारिक ज्ञान विहीन चरित्रों के दर्शन से एक विशेष आनन्द होता है।

यथार्थवाद यदि हमारी आँखें खोल देता है, तो आदर्शवाद हमे उठाकर किसी मनोरम स्थान मे पहुँचा देता है । लेकिन जहाँ आदर्शवाद मे यह गुण है, वहाँ इस बात की भी शका है कि हम ऐसे चरित्रो को न चित्रित कर बैठे जो सिद्धातो की मूर्तिमात्र हो-जिनमे जीवन न हो। किसी देवता की कामना करना मुश्किल नही है, लेकिन उस देवता मे प्राण-प्रतिष्ठा करना मुश्किल है।

इसलिए वही उपन्यास उच्चकोटि के समझे जाते हैं, जहाँ यथार्थ और आदर्श का समावेश हो गया हो । उसे आप 'आदर्शोन्मुख' यथार्थवाद' कह सकते है । श्रादर्श को सजीव बनाने ही के लिए यथार्थ का उपयोग होना चाहिए और अच्छे उपन्यास की यही विशेषता है । उपन्यासकार की सबसे बडी विभूति ऐसे चरित्रों की सृष्टि है, जो अपने सद्व्यवहार और सद्विचार से पाठक को मोहित कर ले । जिस उपन्यास के चरित्रो मे यह गुण नहीं है, वह दो कौड़ी का है।

चरित्र को उत्कृष्ट और आदर्श बनाने के लिए यह जरूरी नहीं कि वह निदोष हो-महान् से महान् पुरुषो मे भी कुछ न कुछ कमजोरियाँ होती है । चरित्र को सजीव बनाने के लिए उसकी कमजोरियो का दिग्दर्शन