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सहित्य का उदेश्य


राकने से कोई हानि नहीं होती। बल्कि यही कमजोरियों उस चरित्र को मनुष्य बना देती हैं । निदोष चरित्र तो देवता हो जायगा और हम उसे समझ ही न सकेगे। ऐसे चरित्र का हमारे ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड सकता । हमारे प्राचीन साहित्य पर आदर्श की छाप लगी हुई है। वह केवल मनोरञ्जन के लिए न था। उसका मुख्य उद्देश्य मनोरञ्जन के साथ आत्मपरिष्कार भी था। साहित्यकार का काम केवल पाठकों का मन बहलाना नहीं है । यह तो भाटो और मदारियो, विदूषको और मसखरो का काम है। साहित्यकार का पद इससे कहीं ऊँचा है। वह हमारा पथ प्रदर्शक होता है, वह हमारे मनुष्यत्व को जगाता है, हममे सद्भावों का संचार करता है, हमारी दृष्टि को फैलाता है। कम से कम उसका यही उद्देश्य होना चाहिए । इस मनोरथ को सिद्ध करने के लिए जरूरत है कि उसके चरित्र Positive हो, जो प्रलोभनो के आगे सिर न झुकाये बल्कि उनको परास्त करे, जो वासनात्रो के पजे मे न फंसें बल्कि उनका दमन करें, जो किसी विजयी सेनापति की भॉति शत्रुश्रो का संहार करके विजय-नाद करते हुए निकले। ऐसे ही चरित्रो का हमारे ऊपर सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है।

साहित्य का सबसे ऊँचा आदर्श यह है कि उसकी रचना केवल कला की पूर्ति के लिए की जाय । 'कला के लिए कला' के सिद्धान्त पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती। वह साहित्य चिरायु हो सकता है जो मनुष्य की मौलिक प्रवृत्तियो पर अवलम्बित हो, ईर्षा और प्रेम, क्रोध और लोभ, भक्ति और विराग, दुःख और लज्जा-ये सभी हमारी मौलिक प्रवृत्तियाँ है, इन्हीं की छटा दिखाना साहित्य का परम उद्देश्य है और बिना उद्देश्य के तो कोई रचना हो ही नहीं सकती ।।

जब साहित्य की रचना किसी सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक मत के प्रचार के लिए की जाती है, तो वह अपने ऊँचे पद से गिर जाता है-इसमे कोई सन्देह नहीं । लेकिन आज-कल परिस्थितियों इतनी तीव्र गति से बदल रही है, इतने नये नये विचार पैदा हो रहे है, कि कदाचित्