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उपन्यास


अब कोई लेखक साहित्य के आदर्श को ध्यान मे रख ही नहीं सकता। यह बहुत मुश्किल है कि लेखक पर इन परिस्थितियो का असर न पडे, वह उनसे अान्दोलित न हो । यही कारण है कि आज-कल भारतवर्ष के ही नही, यूरोप के बड़े बड़े विद्वान् भी अपनी रचना द्वारा किसी 'वाद' का प्रचार कर रहे है । वे इसकी परवा नहीं करते कि इससे हमारी रचना जीवित रहेगी या नहीं; अपने मत की पुष्टि करना ही उनका ध्येय है, इसके सिवाय उन्हे कोई इच्छा नहीं । मगर यह क्योकर मान लिया जाय कि जो उपन्यास किसी विचार के प्रचार के लिए लिखा जाता है, उसका महत्व क्षणिक होता है ? विक्टर ह्यू गो का 'ले मिजरेबुल', टालस्टाय के अनेक ग्रंथ, डिकेन्स की कितनी ही रचनाएँ विचार-प्रधान होते हुए उच्च कोटि की साहित्यिक कृतियाँ हैं और अब तक उनका आकर्षण कम नहीं हुआ । आज भी शॉ, वेल्स आदि बड़े बडे लेखकों के ग्रन्थ प्रचार ही के उद्देश्य से लिखे जा रहे है।

हमारा ख्याल है कि क्यो न कुशल साहित्यकार कोई विचार प्रधान रचना भी इतनी सुन्दरता से करे जिसमें मनुष्य की मौलिक प्रवृत्तियों का सघर्ष निभता रहे ? 'कला के लिए कला' का समय वह हाता है जब देश सम्पन्न और सुखी हो । जब हम देखते है कि हम भॉति-भॉति के राजनीतिक और सामाजिक बन्धनो मे जकडे हुए है, जिधर निगाह उठती है दुःख और दरिद्रता के भीषण दृश्य दिखायी देते हैं, विपत्ति का करुण कदन सुनायी देता है, तो कैसे सभव है कि किसी विचार- शील प्राणी का हृदय न दहल उठे ? हॉ, उपन्यासकार को इसका प्रयत्न अवश्य करना चाहिए कि उसके विचार परोक्ष रूप से व्यक्त हो, उपन्यास की स्वाभाविकता मे उस विचार के समावेश से कोई विघ्न न पडने पाये, अन्यथा उपन्यास नीरस हो जायगा ।

डिकेस इगलैड का बहुत प्रसिद्ध उपन्यासकार हो चुका है। "पिक- विक पेपर्स' उसकी एक अमर हास्य-रस प्रधान रचना है । 'पिकविक' का नाम एक शिकरम गाड़ी के मुसाफिरो की जबान से डिकेस के कान में