सैर करने गया ।बातो ही बातों मे यह चर्चा छिड गयी कि यदि दो के
सिवा ससार के और सब मनुष्य मार डाले जाये तो क्या हो ? इस
अकुर से मैने कई सुन्दर कहानियाँ सोच निकाली।'
इस विषय मे तो उपन्यास-कला के सभी विशारद सहमत है कि उपन्यासा के लिए पुस्तको से मसाला न लेकर जीवन ही से लेना चाहिये। वालटर बेसेट अपनी 'उपन्यास कला' नामक पुस्तक मे लिखते है-
'उपन्यासकार को अपनी सामग्री, अाले पर रखी हुई पुस्तको से नहीं, उन मनुष्यो के जीवन से लेनी चाहिए जो उसे नित्य ही चारो तरफ मिलते रहते है । मुझे पूरा विश्वास है कि अधिकाश लोग अपनी आँखो से काम नहीं लेते । कुछ लोगो को यह शका भी होती है कि मनुष्यो मे जितने अच्छे नमूने थे, वे तो पूर्वकालीन लेखको ने लिख डाले, अब हमारे लिए क्या बाकी रहा १ यह सत्य है । लेकिन अगर पहले किसी ने बूढे, कजूस, उडाऊ युवक, जुआरी, शराबी, रगीन युवती आदि का चित्रण किया है, तो क्या अब उसी वर्ग के दूसरे चरित्र नहीं मिल सकते ? पुस्तको मे नये चरित्र न मिले पर जीवन मे नवीनता का अभाव कभी नही रहा।
हेनरी जेम्स ने इस विषय मे जो विचार प्रकट किये है, वह भी देखिये-
'अगर किसी लेखक की बुद्धि कल्पना-कुशल है, तो वह सूक्ष्मतम-
भावो से जीवन को व्यक्त कर देती है, वह वायु के स्पन्दन को भी जीवन
प्रदान कर सकती है । लेकिन कल्पना के लिए कुछ प्राधार अवश्य
चाहिए । जिस तरुणी लेखिका ने कभी सैनिक छावनियों नहीं देखीं,
उससे यह कहने मे कुछ भी अनौचित्य नहीं है कि आप सैनिक-जीवन मे
हाथ न डालें । मै एक अंग्रेज उपन्यासकार को जानता हूँ, जिसने अपनी
एक कहानी मे फ्रान्स के प्रोटेस्टेट युवको के जीवन का अच्छा चित्र
खीचा था। उस पर साहित्यिक ससार मे बड़ी चर्चा रही। उससे लोगों
ने पूछा-आपको इस समाज के निरीक्षण करने का ऐसा अवसर कहाँ