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पृष्ठ:साहित्य सीकर.djvu/७८

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साहित्य-सीकर


निःसंकोच होकर दूर करते चलिये।

दे॰—बहुत अच्छा। तो मैं अब आपके बनाये हुये नियम के अनुसार शब्दों का रूपान्तर करता हूँ। देखिए, कैसा तमाशा होता है—नया—शब्द स्वरान्त है। आपके नियमानुसार, अन्त में स्वर रखने पर, उसके दो रूप सिद्ध हुये—नई और नए। मंजूर है?

ग॰—आपको समझ की बलिहारी! जनाब-आली, 'नया' शब्द स्वरान्त नहीं व्यञ्जनान्त है। देखते नहीं, उसके अन्त में 'या' है। क्या इतना भी नहीं जानते कि 'या' व्यञ्जन है? मेरे नियम के अनुसार 'नया' के दूसरे दो रूप हुए–'नयी' और 'नये'।

दे॰—इन्द्र, चन्द्र और पाणिनि आदि ही का नहीं, महेश्वर तक का आपने अपमान किया। आप इस विषय में विवाद या शास्त्रार्थ करने और नियम बनाने के अधिकारी नहीं। जिसे स्वर और व्यञ्जन का भेद तक मालूम नहीं उसके साथ शब्दों के रूपान्तरों का विचार करना समय को व्यर्थ नष्ट करना है। 'या' के उत्तरार्द्ध में 'आ' स्वर है। वह य—व्यंजन और आ—स्वर के मेल से बना है। अतएव स्वरान्त ही है, व्यंजनान्त नहीं।

ग॰—क्षमा कीजिए। मैंने जरूर गलती की। मुझे अब आप अपना शिष्य समझिये और शिष्यवत् मेरा शासन करते हुये मेरे निर्म्मित नियम पर विचार कीजिये।

दे॰—विचार करूँ तो क्या करूँ? आपके नियम में कुछ जान भी हो। यह तो अव्याप्ति, अतिव्याप्ति आदि दोषों का आकार हो रहा है। आपके नियम का एक अंश है—"किसी शब्द का कोई रूप"। बताइए, आप शब्द किसे कहते हैं? आपका 'नया' यदि शब्द की परिभाषा के भीतर है, तो 'नई' क्या उसके बाहर है?