पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/१०४

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सिद्धान्त और अध्ययन हमारी पूर्वस्मृतियाँ नादि मिलकर उस वस्तु की प्रत्यभिज्ञा (Cognition) और उसे निश्चित आकार-प्रकार देने में सहायक होती है। जहाँ यह मानसिक क्रिया आवश्यकता से अधिक होती है वहीं भ्रम हो जाता है और स्थाणु (लकड़ी का खम्भा) पुरुष का रूप धारण कर लेता है। स्वप्न में यह बाहरी सामग्री बहुत कम होती है। इन संवेदनों (Sensitions ) के लिए बाहरी आघात आवश्यक नहीं । जहाँ थोड़ी उत्तेजना होती है वहाँ उस पर मानसिक निया चल पड़ती है और उसको केन्द्र बना स्वप्न का जाल बुन लिया जाता है। बाहर कहीं घण्टा बजा तो स्वप्नद्रष्टा अपने मन को स्थिति के अनुकूल गिरजा या मन्दिर रच लेता है, या स्कूल या कालेज समय पर न पहुँचने की चिन्ता से व्यथित हो भागने लगता है अथवा रेलगाड़ी, ट्राम या मोटर की रचना कर लेता है । भागने-दौड़ने तथा उड़ने के स्वप्न बहुत-कुछ सोते समय हाथ-पैरों की स्थिति पर निर्भर रहते हैं । कभी-कभी मच्छर की भनभनाहट गान में परिणत हो जाती है. कभी-कभी पैर सो जाने आदि की आन्तरिक संवेदना भी होती है । उस समय स्वप्नद्रष्टा प्रायः ऐसे स्वप्न देखने लगता है कि कोई अजगर उसके पैर को लपेटे हुए है । यह बाह्य सामग्री कभी-कभी स्वतःचालित स्नायु- विक उत्तेजना (automatic nervous excitement) से मिल जाती है। ___ स्वप्न के उपादान तो कल्पना के चित्र होते है और उनका तारतम्य अनियन्त्रित सम्बन्ध-ज्ञान ( free association ) के बल चलता रहता है। इनमें हमारी अभिलाषाएँ भी बहुत-कुछ योग देती है। हमारी चिन्ताएं, उप- चेतना में दबी हुई अभिलाषाएँ, अतृप्त वासनाएँ और कभी-कभी ऐसी बातें जिनकी हमारे मन पर गहरी छाप पड़ी हो कल्पना के चित्रों के चुनाव में कारण बनती हैं । फ्रायड ने स्वप्न के सम्बन्ध में बहुत-कुछ अनुसन्धान किया है किन्तु उन्होंने उपचेतना में दबी हुई अतृप्त वासनाओं और विशेषकर काम- वासनाओं पर अधिक जोर दिया है। उनके मत से स्वप्नों में प्रतीकत्व (sym- bolism) भी होता है जो कि वासनापूति के नग्न स्वरूप पर पायरण डाल देता है, जैसे कोई अपने जान-पहचान के किसी मनुष्य को जिससे कभी छुटपन में लड़ाई हो गई हो फाँसी के तख्ते पर न लटका हुआ देखकर केवल तख्ते उतारते या चीरते देखे । अधिकांश स्वप्न अभिलाषापूर्ति के या किसी चिन्ता का हल ढूंढ़ने के होते हैं। वह भी एक प्रकार की अभिलाषापूति है । इस प्रकार स्वप्न में इतने तत्त्व पाजाते है---(१) कुछ बाहरी संवेदना, (२) कल्पना, (३) सम्बन्ध-ज्ञान, (४) इच्छा, अभिलाषा, वारागा जिसकी पूर्ति या अपूति जो उसमें कुछ रागात्मकता ले आती है और (५) वेद्यान्तर सम्पर्क-