पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/१२०

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२ सिद्धान्त और अध्ययन अर्थात् क्षण-क्षण में जो नवीनता धारण करे वही रमणीयता का रूप है। बिहारी की नायिका का चित्र न बन सकने और 'गहि-गहि गरब गरूर' आये हुए चित्रकारों का 'नूर' बनने का एक यह भी कारण था कि क्षण-क्षण के नवीनता धारण करने वाले रूप को वे पकड़ नहीं सकते थे। इस परिभाषा में वस्तु को प्रधानता दी गई है। काव्य में जो माधुर्यगुण माना गया है उसका साहित्यदर्पणकार ने इस प्रकार लक्षण दिया है :- 'चित्तद्वीभावमयोऽह्लादो माधुर्यमुच्यते' -साहित्यदर्पण (८२) अर्थात् चित्त के पिघलाने वाले श्राह्लाद को माधुर्य कहते हैं। श्राह्लाद क्रूर और नृशंस का भी हो सकता है जैसा कि रोमन लोगों को निहत्थे मनुष्यों को शेर से लड़वाने में आता था किन्तु माधुर्य का आह्लाद सात्विक आह्लाद है, उसमें हृदय द्रवित हो उठता है। कुमारसम्भव में कहा है कि सौन्दर्य पापवृत्ति की अोर नहीं जाता, यह बचन अव्यभिचारी है अर्थात् सत्य ही है । सच्चा सौन्दर्य स्वयं पापवृत्ति की ओर नहीं जाता है और दूसरे को भी उस ओर जाने से रोकता है। सौन्दर्य में सात्विकता उत्पन्न करने की शक्ति है :--- .. 'यदुच्यते पार्वति पापवृत्तये न रूपमित्य व्यभिचारि तवाचः ।' -कुमारसम्भव (१३६) , सच्चा प्रेमी प्रेमास्पद को पाना नहीं चाहता है वरन् अपने को उसमें खो देना चाहता है। रवीन्द्रबाबू ने कहा है कि जल में उछलने वाली मछली का सौन्दर्य निरपेक्ष द्रष्टा ही देख सकता है, उसको पकड़ने की कामना करने वाला मछुमा नहीं किन्तु यह निरपेक्ष दृष्टि बड़ी साधना से ही प्रासपाती है । कुमार- सम्भव में तो श्मशानवासी, भूतभावन, मदनमर्दन भगवान् शिव की भी यह निरपेक्ष दृष्टि नहीं रही है फिर साधारण मनुष्यों की बात कौन कहे ? किन्तु नितान्त निरपेक्ष दृष्टि न रखते हुए भी वासना में सात्विकता हो सकती है। साहित्य लौकिक वासना में इसी प्रकार की सात्विकता उत्पन्न कर देता है। कोई- कोई साहित्यिक आचार्य तो माधुर्य को उत्पन्न करने वाले अक्षर-विन्यास पर उतर आये, नहीं तो माधुर्य का सम्बन्ध चित्त से ही है । काव्यप्रकाशकार ने कह भी दिया है---'न तु वर्णान'---अर्थात् वर्णों से नहीं । वर्षों से केवल इसी- लिए है कि प्राकृति में गुण रहते हैं-'यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसस्ति' । माधुर्य जहाँ स्थायी होकर रहता है. वहीं रमणीयता प्राजाती है, तभी उसमें क्षण-क्षारण में