११० सिद्धान्त और अध्ययन मदन निभंगी आपु है करी निभंगी नारि ।' -न्ददासकृत भंवरगीत (पद ५९) कृष्णजी स्वयं भी तीन स्थान में टेढ़े हैं और उन्होंने अपने अनकल ही तीन जगह टेढ़ी स्त्री की। 'बिनले, ईठ, श्रनीठ सुनि, मन में उपजरा सो(ग)। श्रासा छूटे, चारि बिधि, करन बखानत लोग ॥' -देवकृत शब्दरसायन (चतुर्थ प्रकाश, पृष्ठ ३८) इसमें इष्टनाश होता है और नाश को अगवा होने की आशा भी नहीं रहती है । इसमें चित्त में विकलता पाती है । 'इष्टनाशादिभिशतोषलव्यं शोक- शब्दभाक्' (साहित्यदर्पण, १।१७७ )-इसमें इन्ट (जिसका नाश होता है। आलम्बन होता है। उसके शरीर का वाह आदि तथा उरासे सम्बन्धित वस्तुएँ उद्दीपन होती हैं । जमीन पर गिरना, निण्यारा, छाती पीटना अनुभाव हैं। निर्वेद, मोह, अपस्मार, व्याधि, ग्लानि, स्मृति, श्रम, विपान, जड़ता, उन्माद आदि सञ्चारी हैं। ___शृङ्गार की भांति यह ररा भी रसराण हे जापाचा मारता है। भवभूति ने इसे प्रधानता दी है-"एको रसः करण ए'। इसमें सहानुभूति के आधिक्य के कारण इसको श्रेष्ठता दी जाती है । ररा की अपरषा में भी हमको सहानुभूति के साथ सर्वसाधारण की भाव-भूमि में आना पता। श्रीरामचन्द्रजी: के विलाप में करुणा की बहुत-सी सामग्री मिल जाती है : ..... दन्य समचारी: 'जथा पंख बिनु खग अति दीना । मनि यिनु भनि करियर करहीमा ॥ अस मम जिवन बंधु बिनु तोही । जौं जा बध जियावह मोही । अनुश्री साव (वार्ता)-रामचरितमानस (लक्षाकाण्ड) निर्वेद और ग्लानि सम्चारी : 'जैहउँ अवध कवन मुंह लाई । मारि हेतु मिय भाइ गयाई ।।' रामचरितमानस (लकाका एड) स्मृति : 'सौपेसि मोहि तुम्हहि गहि पानी । सब विधि सुखा परम हित जानी ॥ -रामचरितमानस (लाहाकायय) इसमें ग्लानि भी मिली हुई है। - अनुभाव : 'जय देव' शब्द में वैय-निया अनुभाव तो था ही गया है, ।
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