पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/१५

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( ११ ) मिलाकर अपनी एक नई परिभाषा तैयार करली और अलङ्कारवाद का बोझ हल्का करने के लिये 'अनलंकृती पुनः क्यापि' (अर्थात् काव्य कभी-कभी बिना अलङ्कार के भी होता है ) कह दिया -'तददोषौ शब्दाथौं सगुणाचनलंकृती पुनः क्वापि' ( काव्यप्रकाश, १।१ ) । मम्मट ने दोषों और गुणों की व्याख्या रस के उत्कर्ष और अपकर्ष-हेतुनों के रूप में ही की। उन्होंने भी रस का विवेचन ध्वनि के अन्तर्गत किया किन्तु उनका विवेचन बहुत विशद और साङ्गोपाङ्ग हुमा । उसमें एक विशेष मौलिकता के साथ पूर्ववर्ती प्राचार्यों के विचारों का सार है। प्राचार्य विश्वनाथ :--रस-सिद्धान्त को किसी-न-किसी रूप में माना तो सभी प्राचार्यों ने है और हमारे कवि-गण भी समय-समय पर इस सिद्धान्त का पोषण करते रहे हैं (जैसे भवभूति ने करुण रस को प्रधानता देते हुए कहा है - 'एको रसः करुण एव' ( उत्तररामचरित ) -- लेकिन उसको कान की आत्मा के गौरवान्वित पद पर प्रतिष्ठित करने का श्रेय आचार्य विश्व- नाथ (१४ वीं शताब्दी के मध्य ) को है। उन्होंने अपने 'साहित्यदर्पण' में . मुक्तकण्ठ से रस को काव्य की प्रात्मा कहा । यद्यपि विश्वनाथ ने बहुत-कुछ मम्मट से लिया है तथापि रस के सिद्धान्त को प्रधानता देने में वे सबसे आगे हैं। रस को अङ्गी न मानकर भी मम्मट ने गुण-दोषों की व्याख्या में रस को अङ्गी माना है.---'ये रसस्याङ्गिनो धर्माः शौर्यादिधात्मनः' ( काव्यप्रकाश, ८६६) । विश्वनाथ ने सबको रस के आधीन रख कर वाक्यं रसात्मक काव्यं' (साहित्यदर्पण, १॥३) की उक्ति से सामञ्जस्य कर दिया है। ध्वनि को भी विश्वनाथ ने मुख्यता दी है । ध्वनिकाव्य को काव्य कहा है-'धाच्यातिशयनि व्यङ्गये ध्वनिस्तस्काव्यमुत्तमम्' (साहित्यदर्पण,४॥३)। असंलक्ष्यक्रमव्यङ्गयध्वनि के उदाहरणों में रस और भाव ही बतलाये हैं किन्तु ध्वनि के अन्तर्गत उनका सविस्तार वर्णन नहीं हुआ है (जैसा मम्मट ने किया है) । साहित्यदर्पण में रस का वर्णन तृतीय परिच्छेद में हुआ है। . भारतीय तत्त्वज्ञान के अधिक मान्य होने के कारण रस-सिद्धान्त शेिष रूप से लोकप्रिय हुआ। हमारे यहाँ प्रात्मानन्दं या ब्रह्मानन्द की प्राप्ति को जीवन का चरम लक्ष्य माना गया है । इसमें सतोगुण की प्रधानता रहती है। काव्यानन्द को 'ब्रह्मानन्द सहोदर' कहा गया है। इसमें मन तमोगुण और रजो- गुण से अस्पृष्ट रहता है । यही बात काव्यानन्द में भी दिखाई गई है :---- 'सरचोद कादखण्डस्वप्रकाशानन्दचिन्मयः । वेद्यान्तरस्पर्शशून्यो. ब्रह्मास्वादसहोदरः ।।