पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/१६

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लोकोत्तरचमस्कारप्राण: कैश्चिप्रमातृभिः । : । ..... स्वाकारवदभिन्नत्वेनायमास्वायत्ते रसः ।। .... रजस्तमोभ्यामस्पृष्ट मनः सत्वमिहोच्यते ।' -साहित्यदर्पण (३।२,३,४) . अर्थात् सतोगुण की प्रधानता वा प्राधिक्य के कारण रस अखण्ड और स्वयं प्रकाशित होने वाली आनन्द की चेतना से पूर्ण रहता है। इसमें दूसरे किसो ज्ञान का स्पर्श भी नहीं रहता है और यह ब्रह्मानन्द का . सहोदर भ्राता होता है। संसार में परे का (वह होता तो इसी लोक का है किन्तु साधारण लौकिक अनुभव से कुछ ऊपर का उठा हुआ होता है) चमत्कार इसका जीवन- प्राण है किन्हीं-किन्हीं सहृदयों रसिकों द्वरा अपने से अभिन्न रूप में (अर्थात् आस्वादकर्ता और प्रास्वाद्य में कोई भेद नहीं रहता है) इसका आस्वाद किया जाता है । मन की सात्विक अवस्था वह होती है जिसमें रजोगुण और तमोगुण का स्पर्श नहीं रहता है । दशरूपककार धनञ्जय ने भी काव्यानन्द को बह्यानन्द का पात्मज कहा है ---स्वादः काव्यार्थसंभेदादारमानन्दसमुन्द्रवः (दशरूपक, ४१४३) । रस की इस व्याख्या के आगे उसको केवल सुखवाद (IHedonism) मानना उसके साथ अन्याय करना होगा। सुख और आनन्द में भेद है। आनन्द अतीन्द्रय और स्थायी होता है-'सुखमात्यन्तिक यत्तद्बुद्धिमानमतीन्द्रियम्' (श्रीमद्भगवद्गीता,६१२१)। रस का आनन्द लौकिक इन्द्रियजन्य सुख से ऊँचा पदार्थ होता है। ब्रह्मा- नन्द का यह सहोदर अवश्य है किन्तु छोटा भाई या पुत्र ही हैं । ब्रह्मानन्द का ही यह लोक में अवतरित रूप है । इसमें विकास, विस्तार, क्षोभ और विक्षेप की मनोदशाएँ अवश्य रहती हैं किन्तु रस के अखण्ड, चिन्मय प्रानन्द की प्राप्ति की मार्गरूपा है। प्रत्येक मनुष्य के जीवन में ऐसे क्षरण पाते हैं जब वह क्षुद्र स्वार्थों से ऊँचा उठकर अानन्द की दशा में पहुँच जाता है । उसका हृदय लोक- हृदय से साम्य प्राप्त कर लेता है । विश्वात्मा से उसका तादात्म्य हो जाता है । यही रसदशा है । इसी को प्राचार्य शुक्लजी ने 'हृदय की मुक्तावस्था' कहा है। यों तो अलङ्कार-शास्त्र के बहुत से आचार्य हुए हैं किन्तु उपरिवरिणत प्राचार्यों के अतिरिक्त तीन प्राचार्यों का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है-- (१) कुन्तल, (२) राजेश्वर और ( ३ ) क्षेमेन्द्र । वक्रोक्ति और वक्रोक्ति का उल्लेख हम पहले भामह के सम्बन्ध कुन्तल में कर चुके हैं। कुन्तल ने वक्रोक्ति को काव्य का व्यापक गुण माना है । कवि का मार्ग साधारण लोगों के