पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/१५७

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काव्य के वय-वात्सल्य और भक्ति 'मैं तोहिं अब जान्यो संसार । बाँधि न सकहिं मोहि हरि के बल, प्रगट कपट-ग्रागार ॥१॥ देखत्त ही कमनीय, कछु नाहिंन पुनि किये बिचार । ज्यों कदलीतरु-मध्य निहारत, कबहुँ न निकसत सार ॥२॥ -विनयपत्रिका ( पद १५८) नीचे के पद में गुण-कथन के साथ शान्तरस के अनुभावों को देखिए :-- 'अजहुँ आपने राम के करतब समुझत हित होइ । कहँ तू , कहँ कोसलधनी, तोको कहा कहत सब कोइ ॥१॥' 'भजन विभीषन को कहा, फल कहा दियो रघुराज । राम गरीब-निवाज के बड़ी बाँह-बोलकी लाज ॥६॥' 'सजल नयन, गदगद गिरा, गहबर मन, पुलक सरीर । गावत गुनगन राम के केहिकी न मिटी भव-भीर ॥६॥' . -विनयपत्रिका (पद १६३) इन अंतिम पंक्तियों में शान्तरस के अनुभाव हैं । इसमें रघुनाथजी आलम्बन हैं। उनकी भक्तवत्सलता उद्दीपन है; स्मृति, दैन्य प्रादि सञ्चारी इसमें व्यजित है। इस प्रकार शान्तरस की पूर्ण सामग्री हो जाती है। . वात्सल्य को दशवाँ रस माना गया है किन्तु उसके सम्बन्ध में भी शान्त- रस-का-सा ही विवाद है । वत्स, पुत्रादि के विषय में रति को वात्सल्य कहते हैं। इसके सम्बन्ध में यह प्रश्न है कि शास्त्रियों ने दाम्पत्य वात्सल्य और रति के अतिरिक्त और रतियों को (रस नहीं) भाव भक्ति माना है । इस हिसाब से भक्ति, वात्सल्य, राजभक्ति, देशभक्ति ये सब भाव माने जायेंगे। रति शृङ्गार का स्थायी भाव है । साहित्यदर्पण आदि में जो रति की परिभाषा है, वह काफी व्यापक है और उसमें देवादिविषयक रतियाँ भी आ सकती हैं। मन के अनुकूल विषय में मन के प्रेमाई होने को रति कहते हैं- 'रतिमनोऽनुकूलेऽर्थे मनसः प्रवणायितम्'--(साहित्यदर्पण, ३।१७६)--पुत्र, राजा, देश, ईश्वर आदि सब मन के अनुकूल विषय हैं किन्तु यह प्रश्न रह जाता है कि पुरुष-स्त्री के पारस्परिक पाकर्षण के अतिरिक्त इन विषय में भी मन उतना ही द्र वरणशील हो सकता है या नहीं ? जो लोग यह मानते हैं कि इन विषयों में मन उतना द्रवरणशील नहीं हो सकता वे देवादिविषयक रति को भाव मानेंगे किन्तु जो लोग यह मानते हैं कि इनमें मन उतना ही प्रेमाई हो सकता है वे इनको शृङ्गार के व्यापक रूप के अन्तर्गत मान सकते हैं । भरतमुनि ने कहा