पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/१६५

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काव्य के वर्य-भाव भावसन्धि होती है। दो भावों की उपस्थिति में संघर्ष अपने-अाप शुरू हो जाता है, उनमें से एक प्राधान्य चाहता है। बिहारीलालजी का निम्नोल्लिखित दोहा इसका अच्छा उदाहरण है :- 'भई लगनि, कुल की सकुच बिकल भई अकुलाइ । दुहूँ ओर ऐची फिरति, फिरकी लौ दिनु जाइ ॥" .. --बिहारी-रत्नाकर (दोहा २०५) इसमें मन की खींचतान शरीर में भी प्रकट हो जाती है, एक उदाहरण भिखारीदासजी के 'काव्यनिर्णय' से लीजिए :- 'कंसदलन को दौर उत, इत राधा हित जोर । चलि रहि सके न स्याम चित, ऐंचि लगी दुहुँ अोर ॥' : .. -भिखारीदासकृत काव्यनिर्णय (रसाङ्ग-वर्णन ४९.) भावशवलता:- कई भावों के एक-दूसरे के पश्चात् पाने का उदाहरण . कुलपतिमिश्र से नीचे दिया जाता है :- .. . 'हग ललके राते भये, रूखे मलके भाय। .. नेह भरे लखि लोचनन. सकुचे परसत पाय ॥' ...~-लेखक के नवरस में उद्धत ( पृष्ठ ५६१) इसमें ललक द्वारा पहले उत्सुकता दिखाई गई है फिर उसके सन्तुलन के लिए उदासीनता का भाव आगया है किन्तु वह उदासीनता अधिक देर न ठहर सकी। नायिका की उदासीनता से प्रियतम नाराज न हो गये हों, इस भाव के परिहार के लिए ही उसमें दीनता आगई है किन्तु दीनताजन्य हृदय की बढ़ी हुई उमङ्ग को लज्जा ने रोक दिया है और उस लज्जा के ही अधिकार में चरण स्पर्श किये गये हैं। . . भिखारीदासजी ने अपने 'काव्य-निर्णय' में जो उदाहरण दिया है उसमें भावों को एक साथ दिखाया गया मालूम पड़ता है, देखिए :---.. . 'हरि संगति सुख मूल सखि, ये परपंची गाऊँ। .. तू कहि तौ तजि संक उत, ग. बचाइ द त जाऊँ।' --भिखारीदासकृत काव्यनिर्णय (रसाङ्ग-वर्णन ५१) • इसमें मिलन की उत्कण्ठा, बदनामी की प्राशङ्का, सखी के प्रति विश्वास, उत्कण्ठा पूरी न होने से उत्पन्न आवेग और साथ ही दैन्य भी है। शङ्का को दबा देने वाला निश्चय और धैर्य के साथ अभिलापापूत्ति के लिए उत्साह है। . - केशवदासजी की रामचन्द्रिका से उद्धृत नीचे के छन्द में भी भावशवलता ... . का अच्छा उदाहरण मिलता है :-- ................. -