पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/१६६

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१३० सिद्धान्त और अध्ययन 'ऋषिहि देखि हरषै हियो, राम देखि कुम्हिलाय । धनुष देखि डरपै महा, चिन्ता चित्त डोलाय ॥' --रामचन्द्रिका (बालकाण्ड) यद्यपि काव्य के सभी दोष रस-दोष है क्योंकि वे रसानुभूति में बाधक होते हैं तथापि कुछ दोष ऐसे भी हैं जो रस से ही सीधा सम्बन्ध रखते हैं, ...: रस-दोष उनका ही यहाँ उल्लेख किया जायगा। साहित्यदर्पण के .. अनुकूल रस-दोष इस प्रकार हैं :--- १. स्वशब्दवाच्य दोष :--अर्थात् रस या उसके स्थायी भाव का उसी शब्द द्वारा कथन अर्थात् जिस रस का वर्णन हो रहा हो,उसका नाम ले माना। यह बात इसलिए रक्खी गई है कि रस. व्यङ्गय है, वाच्य नहीं। रस के व्यजित होने में जो ग्रानन्द प्राता है वह उसके नाम ले देने में नहीं । यह रस और व्यञ्जना के पारस्परिक सम्बन्ध का एक उदाहरण है। सञ्चारी भावों का स्वशब्द- वाच्यत्व इतना दोष नहीं माना जाता; जहाँ पर विभाव-अनुभाव द्वारा वह व्यजित न हो सके वहाँ उसके नामोल्लेख में दोष नहीं होता। स्थायी भाव के स्वशब्दवाच्यत्व का एक उदाहरण लीजिए :- ..'शरद निशा प्रीतम प्रिया, विहरति अनुपम भाँति । ज्यों ज्यों रात सिरात अति, त्यो त्यो रति सरसाति ॥' ..... -लेखक के नवरस में उद्धत (पृष्ठ ६०८) . २. प्रतिकूल विभावादि का ग्रहण :--अर्थात् विरोधी रसों के अनुकूल स्थायी भावों का वर्णन। विरोधी रस का साथ पाना तो दोष है ही किन्तु उसकी सामग्री का आना भी दोष है, जैसे-'मानं मा कुरु तन्वणि ज्ञास्या यौवनमस्थिर' (हे तन्वङ्गि ! तू यौवन को अस्थिर जानकर मान मत कर)। यौवन की अस्थिरता शान्तरस का उद्दीपन है इसलिए इसका शृङ्गार में उल्लेख दोष है । ३. क्लिष्ट कल्पना :-अर्थात् विभावादि के सम्बन्ध में क्लिष्ट' कल्पना वाञ्छनीय नहीं होती, न उसमें अस्पष्टता या विकल्प के लिए स्थान है। इसका एक उदाहरणः 'काव्यनिर्णय' से लीजिए :- ... "उठति गिरति फिर फिर उठति, उठि उठि गिरि गिरि जाति । कहा करौं काले कहौं, क्यों जीवे यह राति ॥' -भिखारीदासकृत काव्यनिर्णय (सदोष-वर्णन ७) इसमें यह नहीं मालूम होता कि किस कारण से स्त्री की यह दशा हुई। इसमें साधारण व्याधि और विरह की व्याधि में अन्तर करने की कोई बात नहीं है । एक उदाहरण और लीजिए :--