पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/१६८

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१३.२ सिद्धान्त और अध्ययन गया है । रत्नावली के चतुर्थ अङ्क म बाभ्रव्य के आजाने पर राजा का साग- रिका को भूल जाना इसका उदाहरण माना गया है । वस्तु को भूल जाना उसके प्रति स्नेह की कमी का द्योतक होता है । भिखारीदासजी ने एक ऐसी नायिका का उदाहरण दिया है जो नायक को सहेट स्थल पर भेजकर स्वयं अपने खेल में लग जाती है, यह स्नेह की कमी के कारण है :--- 'प्रीतम पठे सहेट निज, खेलन अटकी जाय । तकितेहि श्रावत उतहिते, तिय मन मन पछिताय ॥'. -~-भिखारीदासकृत काव्यनिर्णय (रसदोष-वर्णन २६) 5. अङ्ग को प्रधानता देना :---शृङ्गार में नायक-नायिका अङ्गी हैं। दूती, सखी आदि उद्दीपनरूप से अङ्ग कहे जाते हैं । नायिका को प्रधानता न देकर उसकी दासी के रूप को प्रधानता देना इस दोष का उदाहरण होगा :- .. 'दासी सों मंडन समय, दर्पन माग्यो बाम । .... बैठ गई सो सामुहे, करि आनन अभिराम ॥' . . ......... -भिखारीदासकृत काव्यनिर्णयः (रसदोष वर्णन २५) दासी दर्पण न देकर स्वयं सामने बैठ जाती है। इसमें दासी के मुख की उज्ज्वलता का वर्णन हुआ और नायिका की उपेक्षा हुई। केशवदास ने भी सीताजी की दासियों का वर्णन किया है । उसके सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि दासियों का वर्णन इसलिए किया है कि जहाँ की दासी इतनी सुन्दर है वहाँ की रानी कितनी सुन्दर होगी लेकिन श्रीरामचन्द्रजी का उन वासियों के सौन्दर्य का वर्णन सनना ही उनकी मर्यादा के विरुद्ध था। ..... ६. प्रकृति-विपर्यय : साहित्य-शास्त्र में नायकों का प्रकृतियों के अनुकूल विभाजन किया गया है और प्रकृति के अनुकूल ही उनके द्वारा रस का परिपाक बतलाया है । कोई नायक अपनी प्रकृति के प्रतिकूल नहीं जा सकता । चरित्र- चित्रण की सीमाएँ उस समय भी स्वीकृति थीं। दिव्य में देवता आते हैं, अदिव्य में मनुष्य और दिव्यादिव्य' में अवतार गिने जाते हैं। दिव्य के लिए वीर और रौद्र के सम्बन्ध में लोकोत्तर कार्यों का वर्णन बतलाया गया है । अदिव्य प्रकृ- तियों को लोकमर्यादा की सीमा में ही रहना पड़ता है । देवताओं का स्वभाव इस प्रकार बतलाया गया है :-~~ . 'स्वर्ग पताले जाइयो, सिन्धु उलंधन चाव । भस्म ठानियो क्रोध ते, तौ दिब्य स्वभाव ॥' । - भिखारीदासकृत काव्यनिर्णय (प्रकृतिविपर्यय-वर्णन ३२)