पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/१९१

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रस-निष्पत्ति-भहलोल्लट का उत्पत्तिवाद ११५ 'ललनादिभिरालम्बनविभावैः स्थायी रत्यादिको जनितः, उद्यानादिभिरु- हीपनविभावरुद्दीपितः, अनुभाथैः काक्षभजक्षेपणादिभिः प्रतीतियोग्यः कृतः, व्यभिचारिभिरुत्कण्ठादिभिः परिपोषितो रामादावनुकार्ये रसः । नटे तु तुल्यरूप- तानुसंधानवशादारोप्यमाणः सामाजिकानां चमत्कारहेतुः। -काव्यप्रदीप (पृष्ठ ६३) यह मत काव्यप्रकाश के वर्णन से मिलता-जुलता है किन्तु काव्यप्रकाश में भट्टलोल्लट की व्याख्या में अनुकार्य के नीचे अनुकर्ता नट तक का उल्लेख है--- 'मुख्यया वृत्या रामादावनुकार्ये तद पतानुसन्धानान्नतकेऽपि 'प्रतीयमानो रसः' ( काव्यप्रकाश, १२८ की वृत्ति म भट्टलोल्लट के मत से )। इसलिए काव्यप्रकाश के टीकाकार लिख दिया करते हैं 'सामाजिकैरिति शेषः' । सामाजिक का स्पष्ट उल्लेख काव्यप्रकाश में नहीं है किन्तु व्यजित अवश्य है । व्यङ्गधार्थ की पूर्ण अभिव्यक्ति के लिए ही काव्यप्रकाश का उद्धरण न देकर काव्यप्रदीप का उद्धरण दिया गया है। जो लोग भट्टलोल्लट के मत को नट से आगे नहीं ले जाते वे गलत नहीं हैं। वे काव्यप्रकाश के शब्द के आगे नहीं जाना चाहते । - अभिनवभारती के और काव्यप्रकाश के निरूपण में एक यह विशेष अन्तर है कि उसके अनुकूल भट्टलोल्लट अनुभावों को रस की उत्पत्ति का श्रेय देते हैं। अनुभाव का अर्थ है विभावों से उत्पन्न, अभिनव के मत से वह सञ्चारी का विशेष स्वरूप है। मत का सारांश : इस मत में निम्नोल्लिखित बातों की विशेषता हैं:- ... (क) स्थायी भाव का सूत्र में उल्लेख नहीं है किन्तु इस मत में उसका रस के मूल रूप से पृथक् उल्लेख हुआ है, स्थायी भाव के साथ संयोग माना गया है। .. (ख) यह स्थायी भाव आलम्बन विभावों से उत्पन्न होता है ( इसी. से इसको उत्पत्तिवाद कहते हैं ) एवं व्यभिचारी भावों से पुष्ट होकर अनुभावों द्वारा व्यक्त होकर अनुकार्य में रसरूप से रहता है। निष्पत्ति का अर्थ उत्पत्ति है। ' ... (ग) नट में यह रहता नहीं है वरन् रूप की समानता के कारण उसमें आरोप होता है, इसीलिए इसको 'आरोपवाद भी कहते हैं। श्री कन्हैयालाल पोद्दार ने ऐसा ही कहा है। : (घ) अभिनय की कुशलता से प्रारोपित स्थायी भाव सामाजिकों में चमत्कार का कारण बन जाता है। भट्टलोल्लट के अनुसार रस की मूल रूप से रामादि अनुकार्यों में उत्पाद्यो-