पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/१९८

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- सिद्धान्त और अध्ययन .. 'रम्याणि वीचय निशम्य मधुराश्च शब्दान् पयुत्सुकी भवति सुखितोऽपिजन्तुः । तच्चेतसा स्मरति नूनमयोधपूर्वं . .. भावस्थिराणि जननान्तर सौहृदानि ।' -अभिज्ञानशाकुन्तल (श१०४) इस श्लोक में प्राकृत संस्कारों के रूप में रहने वाले स्थायी भावों के जाग्रत हो जाने की बात स्पष्ट हो जाती है। इसके द्वारा यह भी व्यक्त होता है कि उनके जगाने के लिए कुछ सामग्नी चाहिए (सुन्दर वस्तुओं को देखना या मधुर बातों को सुनना)। मत का सारांश : (क) अभिनवगुप्त रस की निष्पत्ति सामाजिक में मानते हैं । (ख) सामाजिकों में स्थायी भाव वासना वा संस्काररूप से स्थिर .. रहते हैं। .... (ग) वे साधारणीकृत विभावादि द्वारा उबुद्ध हो जाते है। वे विभावादि के संयोग के कारण अव्यक्त रूप से अभिव्यक्त हो जाते हैं, करीब-करीब उसी तरह जिस तरह कि जल के छींटे पड़ने से मिट्टी की अव्यक्त गन्ध व्यक्त हो जाती है। (घ) काव्यादि का पाठ, नाटकों का अभिनय सहृदयों के स्थायी भावों की जाग्रति के साधन होते है। पाठकों और दर्शकों को अपने ही उद्बुद्ध' स्थायी भावों का शुद्ध रूप में तन्मयता के कारण चित्त की वृत्तियों के एकाग्र हो जाने से ब्रह्मानन्द-सहोदर अखण्ड रस का आनन्द मिलने लग जाता है। (ङ) अभिनवगुप्त के मत से संयोग का अर्थ व्यङ्गय-व्यञ्चक है और निष्पत्ति का अर्थ है अभिव्यक्ति । इस मत के अनुसार सामाजिकों के हृदय में वासना-रूप में स्थित स्थायी भाव विभावादि द्वारा व्यङ्गय-व्यञ्जक भाव से अभिव्यक्त हो जाते हैं, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि मिट्टी की भव्यक्त गन्ध जल के छींटे पड़ने से व्यक्त हो उठती है। धनञ्जय का मत :-अभिनवगुप्त के मत को उनके अनुवर्ती प्राचार्यो में से अधिकांश ने माना है। धनञ्जय का मत एक प्रकार से उनके ही मत का स्पष्टीकरण है:- ...... 'विभावैरनभावैश्च - सास्विकैयभिचारिभिः । आनीयमानः स्वायस्व स्थायी भावो रसः स्मृतः ॥ . . .. -दशरूपक (1)