पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/२०३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

११ : साधारणीकरण - हमारा लौकिक अनुभव क्षणिक और देशकाल से प्राबद्ध होता है किन्तु हम उससे संतुष्ट न रहकर उसे व्यापक और स्थायी बनाना चाहते हैं । देश के सम्बन्ध में व्यापकता और काल के सम्बन्ध में शाश्वतता मूल प्रवृत्ति हमारी आत्मा की सहज प्रवृत्ति है। विज्ञान में निरीक्षण और परीक्षण द्वारा मनुष्य अपने क्षणिक अनुभवों को नियम का रूप देकर उन्हें देश-काल के बन्धनों से मुक्त कर देता है। इसी प्रकार साहित्य में भी वह अपने हृद्गत क्षणिक उद्वेगों और उद्गारों में शाश्वत वासनाओं से सम्बद्ध रसों की झांकी देखता है। उसकी आत्मा का सहज आनन्द दुःखद अनुभवों में भी सुख का अनुभव करता है किन्तु इस आनन्दानुभव का उत्तराधिकार प्राप्त करने के लिए हमको व्यक्तित्व के बन्धनों से ऊँचा उठना पड़ता है । विज्ञान म जिस प्रवृत्ति द्वारा हम विशेष से सामान्य पर जाते हैं उसी प्रवृत्ति द्वारा साहित्य में कवि, अपनी मौलिक अनुभूति को साधारणीकरण द्वारा व्यापकता प्रदान करता है । हमारा अहङ्कार और ममत्व दुःख की अनुभूति का कारण होता है । अहङ्कार ही में दुःख रूप ईर्ष्या का मूल है । वही दूसरे के सुख में सुखी होने में बाधक होता है । इसी ममत्व-परत्व की भावना को दूर करने के लिए भारतीय समीक्षा-क्षेत्र में साधारणीकरण के सिद्धान्त का उदय हुआ है । साधारणीकरण के सम्बन्ध में विभिन्न प्राचार्य एकमत नहीं हैं। कोई तो विभावों का साधारणीकरण और आश्रय से तादात्म्य मानते हैं, तो कोई सम्बन्धों से स्वतन्त्रता को महत्त्व देते हैं। कोई कोई विद्वान् पाठक के हृदय में ही रस-रहस्य निहित बतलाते हैं। ___ भट्टनायक का मत :-ये विभावों के पूर्ण साधारणीकरण के साथ स्थायी भावों के विशिष्ट सम्बन्धों से मुक्त होने को साधारणीकरण मानते हैं। भट्टनायक का मत काव्यप्रकाश की टीका काव्यप्रदीप में इस प्रकार बतलाया गया है :- 'भावकत्वं साधारणीकरणम् । तेन हि व्यापारेण विभावादयः स्थायी च साधारणी क्रियन्ते । साधारणीकरणं चैतदेव यत्सीतादिविशेषणां कामनीत्वादि- सामान्येनोपस्थिति: । स्थाययनुभावादीनां च सम्बन्धिविशेषानयच्छिन्नत्वेन ।' -काव्यप्रदीप (पृष्ठ ४६)