पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/२०९

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साधारणीकरण-श्रावश्यक समाधान का एकतान-एकलय होजाना ही साधारणीकरण मानते हैं, देखिए :-- । ... कवि के समान हृदयालु सहृदय (आजकल का समीक्षक, समा. लोचक या Critic) भी ( और मैं कहूँगा साधारण पाठक भी) जब उसी भूमिका (मधुमत्ती-भूमिका) का स्पर्श करता है, तब उसकी भी वृत्तियाँ उसी प्रकार एकतान, एकलय हो जाती हैं, (जिसके लिए पारिभाषिक शब्द साधारणीकरण है) और उसे भी वही संगीत सुनाई पड़ने लगता है- उसी प्रानन्द की झलक मिलती है। इस साधारण अवस्था में पहुँचने की शक्ति उसे कुछ तो कवि की दृष्टि की विशेषता और कुछ अपने संस्कार दोनों ही यथातथ्य प्रदान करते हैं।' ---साहित्यालोचन (पृष्ठ २८७) इस प्रकार बाबूजी कवि और पाठक दोनों के ही हृदय का साधारणी- करण मानते हैं, जैसा कि उन्होंने शुक्लजी से मतभेद प्रगट करते हुए लिखा है। इस सम्बन्ध में कुछ बातों के लिए सतर्क कर देना आवश्यक है। पहली बात तो यह है कि 'मधुमती-भूमिका' की इतनी प्रशंसा से यह न समझ लेना चाहिए कि वह योग की बहुत ऊँची अवस्था है। यह आवश्यक समाधान दूसरी ही श्रेणी है, इसके आगे दो श्रेणियाँ और हैं। 'मधुमती-भूमिका' के प्रलोभनों को बचाने के लिए ही उनका संकेत किया गया है । योगी उनमें नहीं पड़ता है। दूसरी बात यह है कि इस भूमिका के लिए पूर्व जन्म के संस्कारों के अतिरिक्ति कवि के लिए भी कुछ अभ्यास और साधनों की अपेक्षा है, यद्यपि वह योग की साधना नहीं होती। रसदशा, रससृष्टि या रसास्वाद के समय ही रहती है ( इस बात की ओर बाबूजी ने भी संकेत कर दिया है कि योगी इस अवस्था को मन चाहे जितनी देर ठहरा सकता है ) । तीसरी बात यह है कि यह अवस्था 'मधुमती-भूमिका' के सदृश हो सकती है, 'मधुमती-भूमिका' नहीं ( माधुर्यगुण का 'मधुमती- भूमिका' से कोई सम्बन्ध नहीं है, उससे अोज का भी उतना ही सम्बन्ध है )। असली बात यह है कि कवि की रसदशा और योगी की 'मधुमती-भूमिका' के कारण भिन्न हैं, इसलिए दोनों कार्य भी एक नहीं हो सकते। शुक्लजी से मतभेद :-साधारणीकरण के सम्बन्ध में 'बड़े महत्व के भ्रम' शीर्षक देकर बाबूजी कहते है :- . 'एक दूसरे विद्वान् (शुल्कजी, शिष्टतावश उनका नाम बाबूजी ने नहीं लिखा है, देखिये चिन्तामणि : भाग १ पष्ठ ३०८) लिखते हैं--"जब तक