पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/२५६

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२२० सिद्धान्त और अध्ययन दूर किया गया है। प्राचार्य विश्वनाथ 'कुशल' शब्द में लक्षणा न मानने के पक्ष में प्रतीत होते हैं। उन्होंने 'कुशल' शब्द में लक्षणा मानने वालों का मत देकर उस पक्ष के विरोधी लोगों का भी मत दे दिया है । उनका कहना है कि यों तो गौ में भी लक्षणा आजायगी, गौ का अर्थ है चलने वाली फिर. 'गौःशेते' में भी लक्षणा हो जायगी । कालान्तर में लाक्षणिक अर्थ रूढ़ि हो जाते हैं। निरुढ़ा और प्रयोजनवती :--रूढ़ि और प्रयोजनवती रूप से लक्षणा के दो प्रकार तो उसकी परिभाषा में ही आजाते हैं। जो लक्षणा रूढ़ि के आधार पर लगाई जाय, वह रूढ़िलक्षणा कहलाती है और जो प्रयोजन के आधार पर लगाई जाय वह प्रयोजनयती कहलाती है। जब हम कहते हैं----'गंगायां घोषः' - तो 'गङ्गा में गांव की बात वास्तविक अर्थ में असम्भव हो जाती है. क्योंकि गङ्गा के प्रवाह में गाँव ठहर नहीं सकता किन्तु लक्षणा द्वारा सामीप्य सम्बन्ध से इसका अर्थ होता है----गङ्गा के निकट गाँव । गङ्गा के समीप न कहकर गङ्गा में, कहने का प्रयोजन यह है कि गांव की पवित्रता और शीतलता पर बल दिया जा सके । गङ्गा के भीतर कहने में गङ्गा के गुणों का अधिक सम्पर्क हो जाता है । 'गांधीजी डेढ़ पसली के आदमी थे'-प्रादमी डेढ़ : पराली का तो नहीं होता है, गांधीजी के भी और मनुष्यों की भांति २४ परालियाँ होंगी किन्तु 'डेढ़ पसली' कहने से शरीर की क्षीणता और हलकेपन का द्योतक करना प्रयोजनीय है । कलिङ्ग साहसी हैं-यहाँ कलिङ्ग का रूढ़ अर्थ है कलिङ्गवासी, यहाँ रूढलक्षणा है। " गौणी और शुद्धा :-यह विभाजन मुख्यार्थ और लक्ष्यार्थ के सम्बन्ध पर निर्भर है। जहाँ यह सम्बन्ध सादृश्य का होता है वहाँ लक्षणा गीणी (अर्थात् सादृश्यगुण से सम्बन्ध रखने वाली ) कहलाती है और जहाँ सादृश्य के अतिरिक्त: और कोई सम्बन्ध होता है.---जैसे प्राधार-श्राधेय वा शङ्गी और अङ्ग का.वहाँ वह शुद्धा कहलाती है । चन्द्र-मुख में जो लक्षणा है वह सादृश्य के आधार पर होने के कारण गौणी है किन्तु जब हम कहते हैं-'माचा: क्रोशन्ति' (मञ्च चिल्ला रहे हैं) अथवा लाठियाँ जा रही है.--तव इनमें सादृश्य का सम्बन्ध नहीं है, इसीलिए ये उदाहरण शुद्धालक्षणा के कहे जायेंगे। उपादानलक्षणा और लक्षण लक्षणा :-यह विभाजन मुख्यार्थ के बनाये रखने या छोड़ने के प्राधार पर है। जहाँ पर मुख्यार्थ बना रहकर अपनी सिद्धि के लिए और दूसरी वस्तुओं को भी लेता है, वहां उपादानलक्षणा होती है---- उपादान का अर्थ है सामनो । जहाँ पर मुख्मार्थ लक्ष्यार्थ-सामग्री के रूप में ग्रहण कर लिया जाता है-'यष्टयः प्रविशन्ति' (लाठियाँ पाती है.)-वहाँ लाठी