पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/२६६

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१६ : ध्वनि और उसके मुख्य भेद रस यदि काव्य की आत्मा है तो ध्वनि काव्य-शरीर को बल देने वाली प्राण-शक्ति अवश्य है । ध्वनि शब्द का अर्थ अनुरणन् या घन्टे-की-सी 'टन्' के बाद देर तक होने वाली झकार है--'एवं घण्टानाद ध्वनि का अर्थ स्थानीयः अनुरणनात्मोपलक्षितः व्यंग्योऽप्यर्थः ध्वनिरिति व्यवहृतः' (ध्वन्यालोक, ४।६७ की लोचन नाम की टीका, पृष्ठ ४७)। यह एक प्रकार से अर्थ का भी अर्थ है, तभी तो इसको शरीर-मात्र में कुछ अधिक प्रधानता मिली है । रीति आदि द्वारा वाक्यों के सुसंगठित हो जाने पर भी काव्य में कुछ-एक विशेष वस्तु होती है। वह मोती की आब की (छाया पारिभाषिक अर्थ में) भांति सौन्दर्य की झलक उत्पन्न करती है। कवियर बिहारी ने कहा है-वह चितवन और कछू जिहि बस होत सुजान' । यह 'और कडू' ही प्रतीयमान अर्थ है । जिस प्रकार अङ्गनाओं का सौन्दर्य अवयव- सौष्ठव से ऊपर की वस्तु है उसी प्रकार प्रतीयगान अर्थ भी वाययों के सङ्गठन और व्याकरण-औचित्य की प्रदोषता से ऊपर की वस्तु है :--- 'प्रतीयमानं पुनरन्यदेव वस्त्वस्ति वाणीषु महाकवीनाम् । - यत्त प्रसिद्धावयवातिरिक्त विभाति लावण्य मिवाङ्गनासु ॥' -~-ध्वन्यालोक (118) यह लावण्य व्यञ्जना द्वारा प्राप्त होता है । जहाँ पर व्यङ्गायार्थ वाच्यार्थ की अपेक्षा प्रधान होता है वहीं वह ध्वनि का रूप धारण कर लेता है । साधा. रण व्यङ्गयार्थ और ध्वनि में यही विशेषता है । सब व्यङ्गयार्थ वाच्यार्थ की अपेक्षा प्रधान नहीं होते । इसमें वाच्यार्थ गौरण होकर पीछे रह जाता है । अर्थ या शब्द अपने निजी अर्थ ( अभिधार्थ ) को छोड़कर जिस विशेष अर्थ को ( व्यङ्गयार्थ को ) प्रकट करता है उसे विद्वान् लोग ध्वनि कहते हैं :- 'यन्नार्थी शब्दो वा तमर्थमुपसर्जनीकृतस्वार्थी । व्यक्ता काव्यविशेषः स ध्वनिरिति सूरभिः कथितः ॥' ध्वन्यालोक (१।१३) - व्यञ्जना की इसलिए प्रावश्यकता पड़ती है कि रसादि की प्रतीति न तो अभिधा ही से होती है क्योंकि शृङ्गार अथवा बीर कहने से कोई आनन्द नहीं मिलता और न लक्षणा से क्योंकि उसमें मुख्या में बाधा नहीं पड़ती। रस