पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/२७७

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अभिव्यन्जनावाद एवं कलावाद-कांचे के सिद्धान्तों का सार २४५ तो पूर्ण अभिव्यक्ति के कारण । अभिव्यञ्जनावाद में एक ही उक्ति के लिए स्थान है, न उसमें प्रस्तुत-अप्रस्तुत का, न स्वभावोक्ति-वक्रोक्ति का भेद है। प्रेम-गली की भांति अभिव्यञ्जनावाद की गली भी अति सांकरी है-'या में दो न समा'-इसीलिए क्रोचे अनुवादों के पक्ष में नहीं है । अनुवाद या तो ठीक नहीं होगा और होगा तो वह एक नयी रचना ही होगी। अनुवाद यदि वफादार (Faithful) होंगे तो सुन्दर न होंगे और अगर सुन्दर होंगे तो वफादार न होंगे। अनुवादक को सौन्दर्य और वफादारी दो में से एक को चुनना पड़ता है। कोचे इस प्रकार लिखते हैं :- ___Ugly faithful ones or faithless beauties is a pro- verb that well expresses the dilemma with vhich even tanslator is faced.' -Croce ( Aesthetic-~Expression and Rhetotric, page 113) सौन्दर्य और वफादारी का योग कठिनाई से होता है-'क्वचित् रूपवती सती'मैं इस बात को अक्षरशः सत्य नहीं मानता। सुधांशुजी ने ठीक कहा है कि 'अभिव्यञ्जनावाद में वाग्वैचित्र्य को जितना स्थान मिला है उससे अधिक कलाकारों ने (ौर में जोडूंगा साहित्य-समीक्षकों ने) उसके नाम पर वाग्विस्तार किया है। (काव्य में अभिव्यन्जनाबाद, अभिव्यन्जना और कला, पृष्ठ १०)। इसके अतिरिक्त वक्रोक्तिवाद के आचार्य कुन्तल भी केवल वक्रोक्ति को ही मुख्यता नहीं देते हैं। वे भी शब्द और अर्थ का सामञ्जस्य चाहते थे। उन्होंने भी रस को माना है किन्तु वक्रता के ही रूप में । कुन्तल की वक्रता बड़ी व्यापक है। उसमें कई प्रकार की वक्रता शामिल है-जैसे उपचारवक्रता, भाववक्रता आदि । . प्राचार्य शुक्लजी द्वारा क्रोचे के कला-सम्बन्धी विचारों को दे देने के पश्चात् मैं एक बार अपने शब्दों में भी क्रोचे के मत का सार दे देना आवश्यक समझता है । विज्ञ पाठकगण इस पिष्टपेषण क्रोचे के सिद्धान्तों को (यदि कहीं हो) क्षमा करें। क्रोचे ने आत्मा की का सार दो प्रकार की क्रियाएँ मानी है-एक विचारात्मक . (Theoretic), दूसरी व्यवहारात्मक (Practical)। विचारात्मक में दो प्रकार की क्रियाएँ हैं-एक स्वयंप्रकाशज्ञान ( Intuition ) की जिसका सम्बन्ध व्यक्तियों या विशेष पदार्थों से है और जो कल्पना द्वारा कला की उत्पादिका है, दूसरी तर्क ( Logic) की क्रिया जो