पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/२८७

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अभिव्यजनावाद और कलावाद-उपसंहार कलाकार समाज से बाहर नहीं रह सकता, उसका नागरिक-रूप उसके कला- कार-रूप से पृथक् नहीं । यदि वह तीन लोक से न्यारी अपनी मथुरा बसाकर . रहे तो केवल सौन्दर्य भी नीति-विछिन्न हो अपूर्ण रहेगा | वाह्य सौन्दर्य नीति के आन्तरिक सौन्दर्य के बिना "विष-रस भरे कनक घट' की भाँति अग्राह्य रहेगा। अतः नीति का प्रश्न उपेक्षणीय नहीं है । काव्य में जिस प्रकार सौन्दर्य और नीति का विच्छेद नहीं हो सकता उसी प्रकार अन्य विषयों का भी नहीं । केवल आकार खोखला रहता है, कोरी सामग्री भी मिट्टी के ढेर की भांति अनाकर्षक रहती है। वह सुन्दर शैली को ही पाकर निखरती है :---- 'मानते हैं जो कला के अर्थ ही, स्वार्थिनी करते कला को व्यर्थ ही । वह तुम्हारे और तुम उसके लिये, चाहिये पारस्परिकता ही प्रिये ।' -~-साकेत (प्रथम सर्ग, पृष्ठ २१)