पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/३११

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समालोचना के मान-मूल्य-सम्बन्धी भालोचना २७५ . हमारे यहाँ के हिन्दू प्रादर्शो में कवि की सूष्टि को 'नियतिकृति नियम. रहिता' मानकर भी काव्य के उद्देश्य बतलाते हुए 'व्यवहारविदे' पीर 'कान्ता.. सम्मितरायोपवेशयुजे' को भी स्वीकार किया है । साहित्यदर्पण में काव्य को धर्म, अर्थ, काम, गोक्ष नारों पुरुषार्थों का साधक माना है । मोक्ष तो हमारे क्षेत्र से , बाहर है । साहित्यिक लोग तो जीवन के सौन्दर्य के प्रागे मुक्ति. को विशेष 'महत्त्व भी नहीं देते है। हमारे प्राचीन साहित्य में धर्म के प्राध्यात्मिक मूल्यों, अर्थ के भौतिक मूल्यों और काम के सौन्दर्य-सम्बन्धी मूल्यों ( Aesthctic values ) का समन्वय जीवन का चरम लक्ष्य माना गया है। भगवान् रामचन्द्रजी ने चित्र- कूट में पाये हुए भरतजो को यही उपदेश दिया था कि तीनों का अविरोध- रूप से सेवन किया जाय, भारतवर्ष का सामाजिक आदर्श भी हमें भेद में अभेद की ओर ले जाता है। विकास के सिद्धान्त के अनुकूल भी वही संस्थान सबसे अधिक विकसित समझा जाता है जिसमें सबसे अधिक कार्य-विभाजन के साथ सबसे अधिक पारस्परिक सह्योग भी हो। इसीलिए गांधीजी ने वर्ग- संघर्ष के विरुद्ध सर्वोदय समाज का प्रादर्श सामने रवाना है। हमारे साहित्य की सार्थकता ऐसी ही समाज-व्यवस्था की स्थापना में योग देने में है। साहित्यिक का कार्य समन्वय और एकत्रीकरण है, विभाजन नहीं है। पार्यों का प्रादर्श भी यही है । __ हमारे प्राचीन ऋषिगण इस सद्भावना की आवृत्ति किया करते थे कि सब सुखी हों, सब कष्ट और रोग से मुक्त हों, सब कल्याण के दर्शन करें और कोई दुःख का भागी न हो :- 'सर्भेसन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिदुःखभाग्भवेत् ।।' यद्यपि इस श्रादर्श का चरितार्थ होना असम्भवप्रायः है तथापि संघर्ष को न्यूनातिन्यून बनाना सत्साहित्य का लक्ष्य होना चाहिए किन्तु संघर्ष-शून्यता वा अर्थ निष्क्रियता नहीं है। संघर्ष-शून्यता के साथ जीवन की सम्पन्नता भी थाञ्छनीय है। यही रामराज्य का श्रादर्श था:- 'बयर न कर काहू सन कोई । रामप्रताप विषमता खोई॥ . सब नर करहिं परस्पर प्रीती । चलहिं स्वधर्म निरत स तिरीती ॥ .. सम निर्दभ धर्मरत पुनी । नर अरु नारि चतुर सब गुनी ॥ . सब गुनग्य पंडित सय ग्यानी । सब कृतग्य महिं कपट सयानी ... .........-रामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)