काव्य की प्रात्मा--समन्वय
प्रसङ्ग में किया है और विश्वनाथ ने रस का वर्णन स्वनन्त्र रूप से किया है ।
विश्वनाथ ने व्यञ्जना के प्राधान्य पर पाँचवाँ परिच्छेद ही लिख डाला है और
रस की अभिव्यक्ति के लिए अन्य वृत्तियों का निराकरण कर व्यञ्जना नाम की
वेदान्तियों की तुरीया अवस्था-की-सी तुरीया (चतुर्थ) वृत्ति को ही स्वीकार
किया है---'तुरीया वृत्तिरुपास्यैवेति सिद्धम्' (साहित्यदर्पण, १४ की वृत्ति)-
और यह प्रश्न उठाकर कि तुरीया वृत्ति क्या है उन्होंने कहा है-'सा चेयं व्य-
अना नाम वृत्तिरित्युच्यते बुधैः' (साहित्यदर्पण, श५)। विश्वनाथ ने भी
'ध्वनि काव्य' और 'गुणीभूत व्यङ्गय' नाम के काव्य के दो भेद करते हुए चित्र-
काव्य को नहीं माना है और ध्वनिकाव्य को उत्तम काव्य कहा है :-
'चाच्यातिशयिनि व्यङ्गय ध्वनिस्तकाव्यमुत्तमम्'
-साहित्यदर्पण (४।१)
साहित्य शब्द (सहित का भाव) में ही स्वयं समन्वय-बुद्धि है । इसी
कारण साहित्य के प्राचार्यों में वह साम्प्रदायिक कट्टरता नहीं होती जो कहीं-
कहीं धार्मिक प्राचार्यों में देखी जाती है । रसवादी विश्वनाथ ने और सब मतों
को भी उचित स्थान दिया है-'उत्कर्षहेतवःप्रोक्ताः गुणालङ्काररीतयः' (साहित्य-
दर्पण, १३)। क्षेमेन्द्र ने औचित्य वाले सिद्धान्त को महत्ता दी है-'औचित्य
रससिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितम्' (औचित्यविचारचर्चा, पृष्ठ ११५)।
उस सिद्धान्त की रसाभास में स्वीकृति हो जाती है-'तदाभासा अनौचित्य-
प्रवर्तिताः' ( काव्यप्रकाश सूत्र, ४६ ) । जहाँ रस और भावों के प्रयोग में
अनौचित्य हो वहाँ आभास कहलाता है । क्षेमेन्द्र ने नौचित्य की परिभाषा
इस प्रकार की है :-
'उचितं प्राहुराचार्याः, सदृशं किल यस्य यत् ।
उचितस्य च यो भावः, तदौचित्य प्रचक्षते ॥
-औचित्यविचारचर्चा
अर्थात् जो जिसके सदृश हो अर्थात् अनुकूल वा उपयुक्त हो उसे प्राचार्य
उचित कहते हैं । उचित के भाव को ही नौचित्य' कहते हैं किन्तु कविता केवल
औचित्य-मात्र नहीं है। वस्तुएँ एक-दूसरे के साथ अनुकूल हो सकती है फिर
भी उनमें सरसता अपेक्षित रहती है।
अलङ्कार, वक्रोक्ति, रीति और ध्वनि अभिव्यक्ति से ही सम्बन्ध रखते
हैं । यद्यपि रसध्वनि और वस्तुध्वनि में विषय का ग्रहण है तथापि उनमें भी
मुख्यता ध्वनन-व्यापार की ही है। गुण, रीति, अलङ्कार और ध्वनि का भी
सम्बन्ध कृति से ही है । कर्ता और भोक्ता कुछ गौण से रहते हैं । रस में कर्ता
पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/५३
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