पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

.... इस परिभाषा में चारों बातों का प्राधान्य है :---- ५. कोमलता और श्रवणसुखदता । २. सरलता। ३. युक्तिमत्ता के साथ रसपूर्ण होना। ४. नृत्यादि से नाटकीयता। .. अग्निपुराण :-भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के पश्चात् दूसरा उल्लेखनीय नाम भगवान् वेदव्यास के 'अग्निपुराण' का है। इसमें सभी काव्याङ्गों का वर्णन है। यद्यपि 'अग्निपुराण' का समय निश्चित नहीं है तथापि यह नाटयशास्त्र के बाद का ग्रन्थ प्रतीत होता है। . संस्कृत के प्रारम्भिक काव्य तो सरल रहे किन्तु पीछे के लोगों का ध्यान पाण्डित्य की प्रोर अधिक गया | नाटकों में भी पाण्डित्य पाया (जैसे भवभूति के नाटकों में) और पाण्डित्यपूर्ण श्रव्यकाव्य की ओर भी लोगों की रुचि अधिक बढ़ी | श्रव्यकाव्यों में नाटक की अपेक्षा व्यापकता अधिक रहती है। वे सभी जगह पढ़े जा सकते हैं और उनमें मञ्चादिक बाहरी उपकरणों की अधिक झट नहीं रहती। ऐसे काव्यों में अलङ्कारों का प्राधान्य रहा ( भट्टिकाव्य ' जो पांचवी शती के आसपास रचा गया था, इसी प्रवृत्ति का फल है ) । कालिदास के पश्चात् जो महाकाव्य पाये उनमें अलङ्कारों और चमत्कारों का प्राधान्य रहा । इन कवियों के सम्बन्ध में श्रीचन्द्रशेखर शास्त्री अपनी संस्कृत साहित्य की रूप-रेखा ' नाम की पुस्तक में लिखते हैं :- 'इन उत्तरकालीन कवियों ने काव्य का उद्देश्य बाह्य शोभा, अलङ्कार,श्लेष- योजना एवं शब्द-विन्यास-चातुरी तक ही सीमित कर दिया। अलङ्कार-कौशल का प्रदर्शन करना तथा व्याकरण आदि के नियमों के पालन में अपनी निपु- णता सिद्ध करना उनका प्रधान लक्ष्य होगया । काव्य का विषय गौण होगया तथा भाषा और शैली को अलंकृत करने की कला प्रधान हो गई।' -संस्कृत साहित्य की रूप-रेखा (पृष्ठ ६२) ___काव्य की प्रवृत्तियों के साथ काव्यशास्त्र . की भी प्रवृत्तियाँ चलती रहीं उस श्लोक की संख्या १७११२३ है । उसमें पाठ-भेद भी है, जैसे 'जनपदसुख- बोध्यं' का पाठ है 'बुधजनसुखबोध्य' । नाट्यशास्त्र की मेरी प्रति में अन्तिम पंक्ति इस प्रकार है-'भवति जगति योग्यनाटवां प्रक्षकाणाम्'----इसमें 'काध्य' शब्द नहीं आता।