पृष्ठ:सुखशर्वरी.djvu/३३

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उपन्यास। - वस्तुतः मित्र थे। प्रायः दो बरस हुए कि, इन्होंने बाबा को ५००) रुपए उधार दिए थे । बाबा ऋणग्रस्त होकर सदैव ऋण चुकाने का उपाय सोचते थे। रामशंकर ने पिता का अभिप्राय समझकर एक दिन अपने घर उन्हें बुलाकर कहा कि, '५००) रुपए जो मेरे हैं, वे मुझे नहीं चाहिए; सुरेन्द्र को मुझे गोद दे दो । दिन स्थिर कर लिया है, मंगल के दिन अच्छा मुहूर्त है।' इस पर बाबा कुछ नहीं बोले; घर आकर सब बातें उन्होंने मुझसे कहीं, फिर वे बहुत रोने लगे।" मजिष्ट्रट,-"जब तुम्हारे पिता ने रामशंकरदास से कुछ भी नहीं कहा, तो उनकी इच्छा लड़का देने की होगी । क्यों कि 'मौनं सम्मतिलक्षणं'।" अनाथिनी,-'जी नहीं, कुछ भी इच्छा नहीं थी । वे बहुत ही दुखी हुए थे, इसीसे कुछ नहीं कह सके थे।" मजिष्ट्र ट,-"अच्छा, फिर ?" अनाथिनी,-"फिर उसी दिन रामशंकर ने बाबा को बुलाकर बहुतसी बातें कहीं । बाबा फिर चुप नहीं रह सके, बोले कि, "मैं कभी सुरेन्द्र को न दूंगा। भीख मांग कर भी आपके ऋण का परिशोध करूंगा, पर बालक न दूंगा; क्योंकि मुझे एक ही पुत्र है, इसलिये कैसे दूं? दरिद्र होने से क्या मैं दयाशून्य हूं?' यह बात कहकर घर आकर बाबा ने सब हाल मुझसे कहा। फिर उसी दिन रामशंकरदास सन्ध्या के समय मेरे घर आए और बोले कि.'बलभद्रदास ! इस विषय में अब मैं तुमसे मित्रता को व्यवहार न करूंगा।तुम्हारे पुत्र के लेने के लिये ही मैने रुपए उधार दिए थे।" .. निदान,वे क्रुद्ध होकर बहुत सी ऊटपटांग बातें कहकर चले गए। बाबा बहुत रोए, अनन्तर वे बोले कि,-'अब रोने से क्या होगा ? मेरे एक मित्र हैं, उन्हें यह हाल जनाऊं।वे अवश्य ही मेरी सहायता करेंगे। मैं उनके यहां जाऊंगा क्योंकि अब इस गांव में नहीं रहना चाहिए। जन्मभूमि होने से क्या होता है ? शत्रु तो बहुत हैं !'-यह बात कहकर चुपचाप उन्होंने अपने मित्र को पत्र लिखा। आशा लगाए लगाए उन्हें उत्कट पीड़ा हुई । अस्तु ठीक समय पर पत्र का जवाब मिला। मुझसे उन्होंने और कुछ नहीं कहा था। एक दिन उन्हीं मित्र के घर हमलोग जाते थे कि मर्घट में पहुंचकर बाबा