पृष्ठ:सुखशर्वरी.djvu/४०

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३४ सुखशर्वरी। सरला ने कहा,--"क्यों रोती हौ ? बहू ! क्या दादा पसन्द नहीं हैं ? तुम ऐसी क्यों होगई ? ऐं भाई! गांव की सब युवती भैया के रूप-गुण की प्रशंसा करती हैं, पर तुम्हें थे पसन्द नहीं हैं ! भई ! क्यों इस तरह रोने लगी ? बोलो अनाथिनी ? क्यों रोती हो?" अनाथिनी ने कष्ट से आंसू रोक कर कहा,-"सरला! तुम अरा स्थिर होवो, मैं सब कहती हूं।" सरला.--"बोलो बोलो, चुप क्यों होगई ! क्या हुआ ? अनाथिनो, यह तसबीर किसकी है ? ” सरला,--"क्यों ? कहा तो सही कि बड़े भैया की है !" अनाथिनी,-"मैने ऐसे ही एक व्यक्ति को बड़ी विपद में देखा है!" सरला,--"ऐं ! कैसी? कैसी बिपद ? " अनाथिनी,-"एक भयानक कापालिक के हाथ बंदीरूग में।" सरला.-"कापालिक ! ओ: बाबा! वह तो नरबलि देता है न ? भला, भैया को उसके हाथ पड़ने लगे ! कोई दूसरा अभागा होगा।" अनाथिनी,-"सरला! मैं मिथ्या नहीं कहती। यदि मेरी स्मरणशक्ति विश्वासयोग्य हो, यदि मेरे नेत्र विश्वासपात्र हों तो यह प्रतिमूर्ति उन्हीकी है, इसमें सन्देह नहीं।" सरला,-"तो वे ही होंगे। हाय, बाबा का करम फूटा! हां भई, तुमने उन्हें कैसे देखा था ? क्यों चे कापालिक के हाथ पड़े ? उन्होंने क्या किया था?" . अनाथिनी,-"सुरेन्द्र कोखोजने के लिये मैं उसी पथ से जाती थी । भयङ्कर आंधी-पानी आने से समीपवाले एक भग्नगृह में मैं घसी। वहां सुरेन्द्र को मैंने पुकारा। तत्क्षण एक युवक ने मुझे भागने के लिये कहा । फिर बहुत बातें होने पर उन्होंने कहा कि, "अपनी भगिनी के पति को खोजने के लिये मैं जाता था, रात को आंधी, पानी और अंधेरे के कारण इसी जङ्गल में पथश्रम दूर करने के लिये मैं सो गया। प्रातःकाल उठकर मैंने देखा कि, 'कापालिक के हाथ में बन्दी हुआ हूं!' समझी !" इतना कहकर अनाथिमी ने रोते रोते अपने मन में कहा,"हाय ! सरला ! उनकी सब बातें मेरे मन में गैठी हैं, उन्हीं के