पृष्ठ:सुखशर्वरी.djvu/४२

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३६ सुखशर्वरी। - - - . ... ... ... .. .. ... ... . सप्तम परिच्छेद पान्थनिवास। "अपूर्वं चौर्यमभ्यस्तं, त्वया चञ्चललोचने । दिवैव जाग्रतां पुंसां, चेतो हरसि दूरतः ॥" (कलाधरः) नन्दपुर से सात कोस उत्तर एक पान्थनिवास (धर्मआ शाला) था। पहिले ही से तीन पथिकों ने आकर * उसकी तीन कोठरियां छेक ली थीं, और थोड़ी देर Moon के पीछे सदर द्वार बंद होगया था। दो पहर रात गई होगी, इस समय धर्मशाला की स्वामिनी सुषदना' की कोठरी बन्द थी, उसमें बाहर से किसीने धक्का मारा। सुखदना ने जल्दी द्वार खोल दिया. और देखा कि, 'दो स्त्रियां और एक तीस बर्ष का युवक खड़ा है ! इन तीनों जेनों को पाठकों ने चीन्हा होगा! इनमें एक सरला, दूसरी मनाथिनी और तीसरे प्रेमदास थे!!! प्रेमदास अभीतक क्वारे थे। अर्थाभाव से कैसे ब्याह हो ? तिसपर वे एक सुन्दरी पर मरते थे, और वह सुन्दरी आधी विधवा थी, तथा यह जानती भी नहीं थी कि, 'मुझ पर प्रेमदास का प्रेम है!' अस्तु । प्रेमदास का चरित्र सर्वथा सुन्दर था। वे कभी कभी हरिहरबाबू के यहां रसोई करते थे, परन्तु प्रायः घर के मन्दिर में नारायण की पूजा किया करते थे। वे अपने कुटुम्बा में अकेले थे। प्रेमदास मार्ग के श्रम से बहुत थक गए थे. पर उन्हे सरला का वह सरल वाक्य स्मरण था कि, 'चलो, तुम्हारा ब्याह करा देगी!' वही वाक्य आकर्षण करके यहां तक प्रेमदास को खींच लाया था। स्थान आदि स्थिर हुआ, और यह निश्चय हुआ कि, 'सरला और अनाथिनी कोठरी के भीतर, तथा प्रेमदास बाहर सोधें। सुबदना का सुबदन देखकर प्रेमदास चौंक उठे, क्यों कि यही उनकी अभिलषित आकाशकुसुम थी, इसे देखते ही उनको