________________
श्रीमङ्गलमूर्तये भगवते नमः । KARI उपन्यास. न - - - - - - - - - - - - - - - प्रथम परिच्छेद OSSESSESEGESZSEO स्मशान। "पुरन्दरसहस्राणि, चक्रवर्तिशतानि च । निर्वापितानि कालेन, प्रदीपा इव वायुना ॥" (व्यासः) S HOC पहर रात थी 1 गगनमण्डल में चन्द्रमा उदय हुए थे, दो) पर आज उनके किरण की वैसी प्रभा नहीं थी, बरन क्षीण थी।सामने आनन्दपुर और हरिपुर के बीचोबीच Exiस्म शान था। वह विस्तृत,प्रशस्त और निस्तब्ध था। चन्द्र के मन्द प्रकाश में वहां एकआध खजूर वा ताड़ दिखाई देते थे, और आस पास एकआध कनकवक्ष मात्र थे। मालूम पड़ता था कि दिन में स्मशानवासी वायसगणों के बैठने के लिये मानो खंटा गाड़ा हो! रात्रि के समय चिता के अंगारों की ढेरी भयङ्कर मालूम होती थी। कहीं कहीं स्यार के बच्चे सद्यःप्रसूत मृतबालकों को तोड़ रहे थे। चारों ओर सन्नाटा था, और स्मशान की निस्तब्धता भङ्ग नहीं होती थी। सहसा गंभीर सन्नाटा मिटा और न जाने कौन बोला,-"बेटी ! अब मैं ज्यादे नहीं चल सकता, यहीं विश्राम कर।"