यह बात बहुत धीमे शब्द से कही गई, इससे बृद्ध के सूखे कंठ की ध्वनि मालूम होती थी।
अनन्तर किसीने उसकी बातों का उत्तर दिया,-" लाया यहां ठहरने का काम नहीं है। इस भयानक स्थान को लांघकर हमलोग दूसरा आश्रय पावेंगे।"
यह बात स्मशान की वायु में मिल गई, और यह वयस्का बालिका के कंठ की ध्वनि बोध हुई।
अनन्तर वृद्ध ने कहा,-"मैं अब एक पग भी आगे नहीं चल सकता। बेटी, बैठो यहीं बैठो।"
फिर न जाने किसने कहा,-"जीजी ! बाबा जो कहते हैं, घही कमों नहीं करतीं ? मैं भी तो अब आगे नहीं चल सकता।"
यह बात बालक के कण्ठ की सी सुनाई दी।
पाठक! इस बालिका को अभी आप "अनाथिनी" के नाम से जानिए । पिता और भ्राता की बातों से निरुपाय होकर "अनाथिनी" स्मशाल ही में बैठी। वृद्ध कांपते कांपते अनाथिनी की गोद में सिर रखकर सो गए।
बालक का नाम सुरेन्द्र था, वह यहिन के बगल में बैठ गया ।
पाठक ! इन लोगों से आप कुछ परिचित हुए, अब इनका कथोपकथन सुनिए।
बालिका,-"बाया ! इस समय चित्त कुछ अच्छा है न?"
वृद्ध,-'बेटी! मालूम पड़ता है कि एकचार ही अच्छा हो जायगा। ओः! बड़ा कष्ट है! दुष्टों के हाथ से बच कर अब काल के गाल में गिरा चाहता हूं।"
बालिका,-"बाबा! ऐसी बातें न बोलो! सभी ज्वर से परित्राण पाते हैं। तुम अभी रस्ता चले हो, इसीसे ज्यादे कष्ट मालूम होता होगा।"
वद्ध,-"ठीक है ! किंतु बड़ी यातना है । यह यातना मृत्यु. यातना सी बोध होती है। बिचारा था कि मित्र के घर जाकर तुमलोगों को सुखपूर्वक रख देंगे । हाय ! सो नहीं हुआ चाहता।"
बालिका,-"हा! ये बातें क्यों कहते हो! मन में कुचिन्ता का आन्दोलन मत करो ! बाबा! हाथ से पेट सुहरावें ?"
इस बेर वद्ध ने कन्या की बातों पर ध्यान नहीं दिया। वह