(१०) सूरसागर। नाम नौका तरन अटल स्थान निज निगम गायो ॥ व्याध अरु गीध गणिका अंजामेल द्विज चरण गौतमनारि परश पायो । अंत औसर अर्ध नाम उच्चार करि सुनत गज ग्राहते तुम छुड़ायो ॥ अवल प्रह्लाद बलदेत मुखही वचत दास ध्रुव चरण चित शीश नायो । पांडुसुत विपत मोचन महादास लखि द्रौपदी चीर नाना वढायो ॥ भक्तवत्सल कृपानाथ अशरण शरण भार भूतल हरन यश सुहायो । सूर प्रभु चरन चित चेतं चेतन करत ब्रह्म शिव: शुक आदि शेष गायो ॥५४॥ राग आसावरी ॥ श्रीनाथ शारंगधर कृपाकर दीनपर डरत. अव त्रासते राखिलीजै । नाहिं जप नाहिं तप नाहिं सुमिरन भक्ति शरण आयेनकी लान: कीजै ।। जीव जलधर जिते भेष धरि धरि तिते रचे लघु दीर्घ वह अचल भारे। मुशल मुद्र हनत त्रिविध कर्मनि गनत मोहिं दंडत धर्म दूत हारे ॥ वृपभ केशी मल्ल धेनुक अरु पूतना रजक चाणूरसे दुष्ट तारे । अजामिल गणिक ते कहा मैं घट कियो तुम 'जु अव सूर चितते विसारे ॥ ५५ ॥ कबहूँ नाही गहर कियो । सदा स्वभाव सुलभ सुमिर न वश भक्तनि अभय दियो। गाय गोप गोपी हित कारण गिरि कर कमल लियो । अब अरिष्ट केशी कालीनथ दावानलहिं पियो ॥ कंस वंश वधि जरासंध हति. गुरुसुत आनि दियो । कर्पत सभा द्रुपदतनयाको अंवर अक्षय किया ॥ सूर श्याम सर्वज्ञ कृपानिधि करुणा: मृदुल. हियो । काकी शरण जाउँ करुणामय नाहिन और बियो ॥ ५६ ॥ राग सारंग ॥ ताते तुमरों. भरोसो आवै । दीनानाथ पतित पावन यश वेद उपनिषद गावै ॥ जो तुम कहो कौन खेल तारयो तौ हौं वोलों साखी । पुत्र हेतु हरिलोक गयो द्विज सक्यो न कोऊ राखी ॥ गणिका.कियो कौन व्रत संयम शुक हित नाम पढ़ावै । मनसा करि सुमरयो गज वैरी ग्राह परमगति पावै ॥ बकी जु गई घोष में छल करि यशुदाकी गति दीनी । और कहत श्रुति वृपभ व्याधकी जैसी गति तुम कीनी ॥ द्रुपदसुताहि दुष्ट दुर्योधन सभा माहिं पकरावै । ऐसो कौन और करुणामय वसन प्रवाह वहावै ॥ दुखित जानिकै सुत कुबेरके तिहि लगि आप बँधावै। ऐसो कौन कर जन कारन दुख सहि भलो मनावै ॥ दुर्वासा दुर्योधन पठयो पंडव अहित विचारी। सुमिरत तीनों लोक अघाए न्हात भज्यो कुस डारी ॥ देवराज मष भंग जानिकै वरस्यो ब्रज पर आई । सूर श्याम राखे सव निज कर गिरि लै भए सहाई॥१७॥ राग धनाश्री ॥ दीनको दयालु सुन्यो अभय दान दाता। सांची विरुदावलि तुम जगतके पितु माता ॥व्याध गधि गणिका गज इहि में को ज्ञाता। सुमिरत तुम तबहिं आये त्रिभुवन विख्याताकशी कंस दुष्ट मारि मुष्टिक कियो पाता। अपने ध्रुव राज काज केतक यह वाता ॥ तीन लोक विभव दियो तंदुल के खाता । सर्वसु प्रभु रीझि देत तुलसीके पाता।गौतमकी नारि तारी नेकु परश लाता। और कुटिल तारि तारि काहे गर्वाता ॥मांगत है सूर त्याग जिहि तन मन राता । अपुनी प्रभु भक्ति देहु-जासों तुम नाता ५८: राग मारू ॥ सो कहा जु मैं न कियो जो पै सोइ सोई चित धरि हौ। पतित पावन विरद सांच कौन भांति करिहो ॥ जव ते जग जन्म पाय जीव है कहायो। तवते छुट अवगुण इक नाम न कहि आयो॥ साधुनिंदक साधु लंपट कपटी गुरु द्रोही । जितने अपराध जगत लागत सव-मोही ॥ गृह गृह गृह द्वार फिरचो तुमको प्रभु छाडें । अंध अंध टेक चले क्यों न परे गाड़ें ॥ कमलनैन करुणामय सकल अंतर्यामी । विनय कहा करै सूर कूर कुटिल कामी॥५॥९॥ राग सारंग ॥ कौन गति करहु मेरी नाथ । हौंतो कुटिल कुचील कुदरशन रहत विपमके साथ ॥ दिन बीततः । - - -
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