पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सप्तमस्कन्ध-७ (१७) - - अथ कविवर सूरदास कृत- श्रीसूरसागर - सप्तमस्कन्ध. श्रीनृसिहरूप भवतार वर्णन राग बिलावल ॥ हरि हरि हरि हरि सुमिरन करो। हरि चरणार्विद उर धरो ॥ हरि चरणन शुकदेव शिर नाई राजा सों वोल्यो या भाई ॥ कहौं सुकथा सुनो चितलाइ । सूर तरो हरिके गुणगाइ ॥१॥ नरहरि नरहरि सुमिरन करो । नरहरि पद नित हृदय धरो॥ नरहरि रूप धरयो जो भाई । कहों सु कथा सुनो चितलाई ॥ हरि जव हिरण्याक्ष को मारयो । दशन अग्र पृथ्वीको धारयो॥ हिरण्यकशिपु दुःसह तप कियो। ब्रह्मा आइ दरश तब दियो।कछू तोहि इच्छा जो होई । मागिलेहि वरदे अब सोई ॥राति दिवस नभ धरणि नगरौं । अस्त्र शस्त्र परिहारन धरों ॥ तेरी सृष्टि जहाँ लगिहोई । मोको मारिसके नहिं कोई ॥ कह्यो ब्रह्मा ऐसेही होई।पुनि हरि चाहै करिहैं सोई।यह कह ब्रह्मा निज पुर आए। हिरण्यकशिपु निज भौन सिधाए । भुवन आइ त्रिभुवनपति भए। इंद्रवरुण सबही भजि गए ॥ ताके पुत्र भए प्रहाद । भयो असुर मुनि अति अहाद ॥ पांच वरपकी भई आइ। संडामर्का लिए बुलाइ ॥ तिनके संग चटशाल पठायो। राम नाम सों तिन चित लायो। संडामक रहे पचिहाल । राजनीति करो वारंवार।कह्यो प्रह्लाद पढत में सार । कहां पढावत और जंजार ॥ जब पांड़े इत उत कहिं गए । वालक सब इकठौरे भए ॥ करो यह ज्ञान कहां तुम पायो । नारदमाता गर्भ सुनायो ॥ सवनि कयो देहु हमैं सिखाइ । सबहुन के मति ऐ- सी आइ ।। कह्यो सवनिसे तव समुझाई । सब तजि भजो चरण रघुराई ॥ रामहि राम पढो रेभाई। रामहिं जह तहँ होत सहाई ॥ इहां कोऊ काहूको नाहिं । असंबंध मिलत जगमाहि ॥ काल अवधि जब पहुँचै आई। चलते वेर कोउ संग न जाई॥ सदा संघाती श्री यदुराई । भाज- ये ताहि सदा लवलाई । हर्ता कर्ता आप सोई । घट घट व्यापि रह्योहै जोई ॥ ताते द्वितिया और नकोई । ताके भजे सदा सुख होई॥ दुर्लभ जन्म सुलभही पाई । हरिन भजे सोनरकहि जाई। यह जिय जानि विपय परिहरो। राम नाम ही सदा उच्चरो॥शत संवत मनुष्य की आई। आधी तो सोवत ही जाई ॥ कछु बालापनहीं में बीते । कछु विरधापन माहिं व्यतीते ॥ कछु नृप सेवा करत विहाई । कछुइक विषय भोगमें जाई ॥ ऐसेहीजो जन्म सिराई । विन हरि भजन नरक में जाई॥ बालपनो गए ज्वानी आवै । वृद्ध भयेमूरख पछतावै ॥ तीनोपन पुनि ऐसहि जाई। ताते अवहिं भजो यदुराई । विपय भोग सव तनमें होई । विनु नर जन्म भक्ति नहिं होई ॥ जाने करै सो पशुसमहोई । ताते भक्ति करो सब कोई ॥जव लगि काल न पहुंचै आई । हरि की भक्ति, करौ चितलाई ॥ हरि व्यापकहै सबसंसार । ताहि भजो ऐसी विचार ॥ शिशु किसोर वृद्ध तनु ॥