पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१६५

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। (७२) धनुभंग पाणिग्रहणलीला ॥ राग नट ॥ ललितगति राजत अति रघुवीर । नरपति सभा मध्यः ।। भये ठाढ़े युगलं हँसत मति धीर ॥ अलख अनंत अमित महिमावल कटि कसि रख्यो तुनीर ।। लघु धनु काकपक्ष शिर शाभित इक इक द्वैदै तीर ॥ भूपण विविध विपद अंबर युत सुन्दर श्याम शरीर । देखत मुदित चरण परसे सुर व्योम विमानन भीर॥ प्रमुदित जनक निरखि अंबुज मुख विगत नयनं मन पीर । तात कठिन प्रण मानि जानि जिय जनकसुता आधीन ॥ करुणा मय जब चाप लियो कर बांधि सुदृढ़ कटि चीर । भुव भृत शीश नमित जु गर्वगतं पावक संच्यों नीर ॥ डुलत महीधर भौ फनपति चल कूरम अति अकुलान । दिग्गज चलित खलित मुनि आसन इन्द्रादिक भयमान ॥ रवि मग तज्यो तरफि ताके इत उत पथ गएकी आन ॥शिव विरंचि व्याकुल भये ध्वनि सुनि जब तोरयो भगवान ॥ भनन शब्द प्रगटित अति अद्भुत अष्टदिशा नभ. पूर । श्रवण हीन सुनिभये अष्टकुलं नाग वगरि भयचूर ॥ अष्ट श्रवण. पूरित ब्रह्मा सुनि सदा सुभट वड़ पूर । मोहित सकल सयान जानि जिय महाप्रलयको पूर ॥ पाणिग्रहण रघुवर वर कीनो जनकसुता सुख दीन । जय जय धुनि सुनि करत अमर गन नर नारी लव लीन ॥ दुष्टन दुष्ट संत संतनको नृप व्रत पूरन कीन। रामचन्द्र दशरथहि विदा कार सूर. दास आधीन॥२॥जनक दशरथ रामनी सीता समेत विदा करण । राग सारंगादशरथ चले अवध आनन्दत।। जनकराइ बहु दाइज दै करि बार बार पद वंदत ॥ तनयाजामातनिको समुदत नैन नीर भरि आए। सूरदास दशरथ आनन्दित चले निशान वजाए ॥२५॥ मार्ग विषे परशुरामको रामजीसों मिलाप परस्पर विवाद ॥ परशुराम तेहि अवसर आयो । कठिन पिनाक कह्यो किन तोरंयो क्रोध वंत यह वचन सुनायो । विप्र जानि रघुवीर धीर दोउ हाथ जोरि शिरनायो । बहुत दिननको हुतो पुरातन हाथ छुअत उठि आयो ॥ तुम तौ द्विज कुल पूज्य हमारे हम तुम कौन लराई। क्रोधवंत कछु सुन्यो नही लयो सायक धनुप चढ़ाई। तबहूँ रघुपति क्रोध न कीनो धनुप वान संभारयो। सूरदास प्रभु रूप समुझि पुनि परशुराम पग धारयो॥२६॥ अवधपुरी प्रवेश । राग सारंग!!. अवधपुर आए दशरथ राइ । राम लक्ष्मण भरत शत्रुधन सोभित चारो भाइ।। घुरत निसान मृदंग शंख ध्वनि भेर झांझ सहनाइ । उमगे लोग नगरके निरखत अति सुख सब हनि पाइ॥ कौशल्या आदिक महतारी आरति करति वनाइ। यह सुख निरखि मुदित सुरनर मुनि सूरदास बलि जाइ। ॥ २७ ॥ दशरथ विचार रामजीको राज्य दे माप वन गवन, कैकेयी विनती, भरत राज ॥ महाराज दशरथ मन धारी । अवधपुरीको राज राम दै लीजै व्रत वन चारी ॥ यह सुनि बोली नारि कैकयी अपनो वचन संभारो। चौदह वर्ष रहैं वन राघव छत्र भरतं शिर धारो ॥ यह सुनि नृपति भयो अति व्याकुल कहत कछू नहिं आई । सूर रहे समुझाइ बहुत पै कैकयी हठ नहिं जाई ।॥ २८॥ दशरथ कौशल्या विनय । राग कान्हरा ॥ महाराज दशरथ पुनि सोवत । हा रघुपति लछिमन वैदेही सुमिरि सुमिार गुण रोवत ॥ त्रिय चरित्र मयमत्त न ससुझत उठि पखाल मुख धोवत । महा विपरीत रीत कछु और वारवार मुख जोवत ॥ परम कुबुद्धि को नहिं समुझत राम लपन हँकराये । कौशल्या अतिं परम दीन कै नैन नीर भरि आये। विह्वल तन मन चकित भई सुनि सा प्रतच्छ सुपिनाये । गदगद कंठ सूर कोशलपुर सोर सुनत दुख पाये ॥ २९ ॥ दशरथ प्रश्वात्तापू. कैकेयी मति वचन ॥ फिरि फिरि नृपति चलावत. वात । कहो सुमति कहा तोहि पलटी प्राण जीवन कैसे बनजात ॥ हाहा राम लक्ष्मण अरु सीता फल भोजन जुडसावै पात । बै वियोग