पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१६६

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नवमस्कन्ध-९ (७३) | शिर जटा धरै दुम चर्म भस्म सब गात ॥ विन रथ रूढ़ दुसह दुख मारग विन पदवान चलैं दोउ | भ्रात । एहि विधि सोच करत अतिहीं नृप जानकि ओर निरखि विलखात ॥ इतनी सुनत सिमिटि सब आये प्रेम सहित धारे अश्रुपात । शादिन सूर सहर सब चकृत सब रस नेह तज्यो पितु मात ॥३०॥ कैकेयी वचन राम प्रति । राग सारंग ॥ सकुचनि कहत नहीं महाराज । चौदह वर्ष तुम्हें वन दीनो मम सुतको निज राज ॥ तव आयसु शिरं धरि रघुनायक कौशल्या ढिग आए । शीश नाइ बन आज्ञा माग्यो सूर सुनत दुख पाये ॥ ३१ ॥ राम जू मति दशरथ विलाप ॥ रघुनाथ पियारे आजु रहो हो । चारि याम विशराम हमारे छिन छिन मीठे वचन कहो हो ॥ वृथा होइ वर वचन हमारुरी कैकयी जीव कलेस सहो हो । आतुर है अब छांडि कुशल पुर प्राणजिवन कित चलन कहो हो ॥ विछुरत प्राण पयान करेंगे रहो आज पुनि पंथ गहो हो । अव सूरज दिन दर्शन दुर्लभ कलपि कमल कर कंठ गहो हो ॥३२ ॥राग गुजरी ।श्रीराम वचन नानकी मति तुम जानकी जनकपुर जाहु । कहां आनि हम संग भरमिहो वन दुख सिंधु अथाहु ॥ तजि. वह जनकराज भूपण सुख कत तृण तलय विपिन फल खैहो । ग्रीपम कमल बदन कुम्हिलैहै तजि सर निकट दूर कितन्हैहो ॥ जिन कछु वृथा सोच मन करिहौं मातु पिता सुख देहो। तुम फिरि रही संग में तेरे जो वन बसि पछितैहो । होनी होइ कर्मकृत रेखा करिहौं तासु वचन निरवाहु । सूर सत्य जो पतिव्रत राखो तो उठि संग चलौ जिन जाहु ॥ ३३ ॥ नानकी वचन श्रीराम जू मति ॥ राग केदारा ॥ ऐसी जिय जिनि धरो रघुराई । तुमसों तजि प्रभु मोसी दासी अनतन कहूं समाई। तुमरो रूप अनूप भानु ज्यों जव नैननि भरि देखों । ताछिन हृदय कमल परिफुल्लित जन्म सफल करि लेखों ॥ तुमरे चरन कमल सुखसागर यह व्रत हौं प्रतिपलिहौं सूर सकल सुख छांडि आपुनो वन विपदा संग चलि हौं ॥ ३४ ॥श्रीराम वचन लक्ष्मण मति' विदा करन हेतु । राग गूनरी ॥ तुम लछमन निज पुरहि सिधारो । विछुरन भेट देउ लघु बंधू जियत न जैहै शूल तुम्हारो॥ यह भावी कछु और काज है सुको जोयाको मेटन हारो॥ तुम मति करो अवज्ञा नृप की यह दूपण तो आगे भारो॥ याको कहा परेपो हरपो मधु छीलर सरितापीत खारो। सूर सुमित्रा अंक दीजियो कौशल्या परणाम हमारो॥३५॥ लक्ष्मण संगलेन ॥ राग सारंग ॥ लछमन नैन नीर भरि आयो उत्तर कहत कछू नहिं आयो रह्यो चरण लपटायो ॥ अंतर्यामी प्रीति जानिकै लक्ष्मण लीनो साथ । सूरदास रघुनाथ चले बन पिता वचन धरिमाथ ॥३६॥ अहल्या तरन ॥ राग सारंग ॥ गंगा तट आए श्रीराम । तहां पपाण रूप पग परसे गौतम ऋपिकी वाम ॥ गई अकास देव तनु धरिकै अति सुन्दर अभिराम । सूरदास प्रभु पतित उधारन विरद कितक यह काम ॥ ३७ ॥ लक्ष्मण केवट संवाद ।। रागमारू ॥रे भैया केवट ले उतराई । रघुपति महाराज इत ठाढे कित नाव दुराई।अवहिं शिलाते भई देव गति जब पगु रेणुछुआई। हौं कुंटुंब काहे प्रतिपारौं वैसो यह लैजाई ॥ जाके चरन रेनुकी महिमा सुनियतु अधिक बड़ाई। सूरदास प्रभु अगनित महिमा वेद पुराननि गाई ॥ ३८ ॥ फेवट विनय ॥ राग कान्हरा ॥ नवका नाही हौं ले आऊं। प्रगट प्रताप चरण को देखों ताहि कहां लौ गाऊं ॥ कृपासिंधु पै केवट आयो कंपत करत जुवात । चरण परसि पापान उड़त है मति वेरी उड़ि जात ॥ जो यह वधू होय काहू की दार स्वरूप धरे। छूटे देह जाइ सरिता तजि पगसों परस करे ॥ मेरी सकल जीविका यामें रघुपति मुक्ति न कीजै । सूरजदास चढो प्रभु पाछे रेणु पखारन दीजै ॥ ३९ ॥ केवट वचन राम