पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१९४

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दशमस्कन्ध-१० (१०१) सूरदास सोभा तेहि अवसर जहां तहांते आवति ॥ १७॥ रागासावरी ॥ ब्रज भयो महरके पूत जब यह बात सुनी ॥ सुनि आनंद सब लोग गोकुल गुनत गुनी। आत पूरव पूरे पुण्यरूपी कुल अटल थुनी । ग्रहलन नक्षत्र वल शोधि कीनी वेद ध्वनी ॥ सुनि धाई सवै ब्रजनारि सहज शृंगार किए । तनु पहिरे नौतन चीर काजर नैनदिये ॥ कसि कंचुकि तिलक लिलार सोभित हार हिये ॥ करकंकन कंचनथार मंगलसाज लिये ॥ शुभ श्रवणनि तरल बनाइ वेनीशिथलाही । सुर वर्षत सुमन सुदेश मानौ मेघ फुही । मुखमंडित रोरी रंग सेंदुर माँग छुही ॥ ते अपने अपने मिलि निकसी भांति भली । मनु लाल मुनिनकी पांति पिंजर दूरि चली । गुणगावहिं मंगल गीत मिलि दश पांच अली । मनु भोर भए रवि देखि फूली कमलकली ॥ पिय पहिले पहुँची जाइ अति आनंद भरी। लई भीतर भवन बुलाय सवै शिशुपाइ परी एक वदन उघारि निहार देहि अशीश खरी। चिरजिवो यशोदानंद पूरणकामकरीधनि धनि दिन धनि राति धनि यह पहर घरीधन धन्य महरिकी कूख भाग सुहाग भरी।।जिन जायो ऐसो पूत सवसुखफल निफरी।थाप्योथिर परिवार मनकी शूलहरी ॥ सुनि ग्वालनि गाइ वहोरि बालक वोलि लये । गुहि गुंजा घसि वनधातु अंगनि चित्र ठये ॥ शिर दधि माखनके माट गावतगीतनये । कर झांझ मृदंग बजाइ सब नंद भवन गये।मिलि नाचत करत कलोल छिरकत हरददही । मानों वर्पत भादोंमास नदी घृत दूध वहीनिहो तहां चित जाइ कौतुक तही तहीसिव आनंद मगन गुवाल काहू वदत नहीं।एकधाय नंदपैजाइ पुनि पुनि पांय परै। एक आपुन आपुहि माहि हाँस हँसि अंक भरै।।एक अंवर उतारत अंगदेतन सेंक करै। इक दधि अक्षत अरु दूव सवनके शीशधरै ॥ तव न्हाइ नंदभए ठाढ़े अरु कुशहाथ लिये। घसि चन्दन चारु मँगाइ विप्रन तिलक किए। नान्दीमुख पित्र पुजाइ अंतर सोच हरे। गुरजनद्विजन पहिराइ सवनिके पांइ परे ।। गैयां गनी न जाहिं तरुणि सब वच्छवढ़ीते चरहिं यमुनके कच्छ दूने दूधचढ़ी।खुर ताँवे रूपे पीठि सोने शृंगमढ़ीतिदीनी द्विजन अनेक हरषि अशीशपढीतव अपने मित्र सुबंधु हँसि हँसि वोलि लिए।मथि मृगमद मलय कपूर सवनके तिलक किए । उरमणिमाला पहिराय सवन विचित्र ठए।दान मान परधान पूरणकाम किए ॥ वरमागध वंदी सूत आंगन भवन भरे । ते बोले लैलै नाम क्रीडत विवस परैजिन याच्योजाइ रस नंदराय ठरे॥ मानो वर्पत मास अपाढ़ दादुर मोर रे। तव अमर और मँगाइ सारी सुरंग धनी॥ते दीनी वधुन वोलाइ जैसी जाहि वनी । ते वहुरी अति आनंद निज गृह गोप धनी ॥ ते निकसी देत अशीश रुचि अपनी अपनी। घर घर भरि मृदंग पड़व निशान वजेवारन वंदनवार अरु ध्वज कलस सजातादिनते वे लोग सुख संपांते नतजे । कहि सूर सब यह गति ने हरिचरणभजे ॥ १८॥ राग धनाश्री ॥ आजु नंदके द्वारे भीर । एक आवत एक जात विदा होइ एक ठाढे मंदिरके तीर ॥ कोउ केसर कोउ तिलक बनावत कोउ पहिरत कंचुकीची एकनकौदै दान समपित येकनको पहिरावतचीएकनको भूषण- पाटम्बर एकनको जो देत नगहीर । एकनको पुहुपनकी माला एकनको चंदन घसि वीर।एकनको तुलसीकीमालाएकनको राखतदेधीर। सूरश्याम घनश्याम सनेही धन्य यशोदा पुण्य शरीर॥१९॥ गौरी ॥ गोपी गावहिं मंगलचार वधायो ब्रजराजको । अब भयउ अमर सब काज वधायो ब्रजरा- जको ।। रानी जायोहै मोहनपूत वधायो ब्रजराजको । बहुत नारि सुभाग सुंदर और घोपकुमारि सजन प्रीतम नाउ लैलै देहि परस्पर गारि ॥ आनंद स्तुति अतिस भयो. घर घर. नृत्य कामहि ठाउँ । नंदद्वारे भेट लैलै उमयोहै गोकुलगाउँ ॥ सा थिये वनाइकै देहिं द्वारे सात सींक