पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२१२

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दशमस्कन्ध-१० .(११९) सोहै। बलि बलि जाउ छबीले मुखकी या पटतरको कोहै । या वानक उपमा दीवेको शुकविक हाटक गेहै । देखत अंग थके मनमें शशि कोटि मंदन छविमोहै ॥ शशिगण गारि कियो विधि आनन कभौंह मिलि जोहै । सूरश्याम सुंदरता निरखत मुनिजनको मनमोहै ॥ ३८ ॥ विलावल ॥ बाल गोपाल खेलौ मेरे तात । बलिबलि जाउँ मुखार्विदकी अमी वचन बोलत तुतरात ॥ उनीदे नयन विसालकी सोभा कहत न वनिआवै कछुवात । दूरखरे सब सखा बुलावत नयन मीडि उठि आए प्रभात ॥ दुहुँकर माठ गयो नंदनंदन छिटकि वूद दधि परत अघात । मानहुँ गजमुक्ता मर्कत पर सोभित सुभग साँवरे गात ॥ जननी प्रति मांगत मनमोहन, देमाखन रोटी उठि प्रांत । लोटत पुहामि सूर सुंदर धन चारिपदारथ जाके हाथ ॥ ३८ ॥ पालने झुलो मेरे लालपियारे ॥ सुसकनिकी हौं वलि वलि करौ तिल तिल हठ न करह जेदुलारे। काजरहाथ भरो जिनि मोहन हैं नैन अतिहीरतनारे । शिरकुलही पहिराय पैंजनी तहाँ जाहु जहां नंदववारे ॥ यह विनोद देखत धरणीधर मात पिता वलभद्र ददारे । सुर नर मुनि कौतू हल भूले देखत सूरश्याम हैंकारे ॥३९॥ क्रीडत प्रात समय दोउ वीर ॥ माखन मांगत वात न मानत झकत यशोदा जननी तीर ॥ जननी मध्य सन्मुख संकर्षण ऐचत कान्ह खस्यो तनुचीर ॥ मनो सरस्वती संग उभै द्विज राम कृष्ण अरु नील कंठीर ॥ सूरश्याम गही कुवरी कर मुक्ता मांग गही बलवीर तारुन भखुलीनो अप अपनो मानहु लेत निवरनिसीर॥४गौगोपाल राइ दधि मांगत अरु रोटी। माखन सहित देहि मेरि जननी सुपक समंगल मोटी ॥ कतहो आरि करत मेरे मोहन कहत तुम आंगन लोटी । जो माँगहु सोदेहु मनोहर यह वात तेरी खोटी ॥ प्रातकाल उठि देहुँ कलेऊ वदन चुपरि अरु चोटी । सूरदासको ठाकुर पढो हाथ लकुट लिये छोटी ॥ ११ ॥ हरिकर राजत माखन रोटी। मनौवारिज शनि वैरु जानि जिय गयो सुधा शिशु घोटी॥ मनौवराह 'भूधर सहपति धरी दशननकीकोठी । शनि शिशुमेलि मुख अंबुज भीतर उपजी उपमा मोठी ॥ नग्न गात मुसक्यात तात ढिग निरत करत गहि चोटी । सूरजप्रभुकी इहै जुजूउनि लालन ललि तलपेटी ॥४२॥दोउभैया मैयापै मांगत दे मां माखन रोटीमुनीभावती एक वात सुतनकी झुठेहि धामके काम अगोटीवलजू गह्यो नासिका मोती कान्हकुँवर गही दृढकरचोटी । मानहु हस मोर भख लीने कविजन कहै उपमा कछु छोटी।यह छवि देखत महरि अनंदित महर हँसत लोटि लोटी। सूरदास प्रभु मुदित यशोदा भागवडे करमनिकी मोटी॥ १३॥ आसावरी ॥ तनिक दैरी माइ। माखन तनक देरी माया ॥ तनिक करपर तनिक रोटी मांगत चरन चलाइ ॥ तनक भूपर न नकारखानेत पकरचौ धाइकिपि आगिरि शेपसक्यो दधिचलो अकुलाइ॥जामुखको ब्रह्मादिक लोचै सो मांगत ललचाइ । ईशकेवेग दरशदीजै ब्रज बालक लत वलाइ ॥ माखन मांगत श्यामसुंदर देत पग पटकातिनक मुखकी तनक वनियां मांगतहैं तोतराइमेरेमनको तनिक मोहन लागु मोहिवलाइ॥श्यामसुंदर गिरिधरनि ऊपर सूर बलि बलिजाइ॥४॥विलावलानेकरही माखन धों. तुमको। ठाढा मथति जननि दधि आतुर लवनी नंद सुअनको ॥ मैं वलिजाउँ श्याम वन सुंदर भूख लगी तुम भारी । वात कहूंकी बूझति श्यामाहं फेर करत महतारीकहत वातः हरि कछू न समुझत झूठेहि देत हुकारी। सूरदास प्रभुके गुणगावत तुरतहि विसरिगई नंदनारी ॥ ॥ ४५ ॥ वातनहीं सुत लाइ लियो।।तवलौं मथि दधि जननी यशोदा माखन करि हरि हाथ दियो। लैलै अधर परसकरि जेवत देखत फूल्यो गात हियो॥ आपुहिं खात प्रशंसत. आपुहिं माखन 1.